Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy

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Page 657
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-भैषज्य रस्नाकरः [खकारादि. (९५८७) खर्परशोधनम् (४) । एकत्र नीबूके रसके साथ स्वरल करके वृन्ताफमूषामें (२. र. स. । पू. वं. अ. २ ; र. चं.) । | लेप कर दें और उसे सुखाकर उसके मुंह पर मिट्टी नमो वाऽश्वमो वा तके वा कालिकेय वा। | का खपरा ढक कर अग्निमें मावें । जब नीली प्रताप्य मन्जितं सम्यक खरं परिशुद्ध यति ॥ | ज्वाला निकलने के पश्चात् सफेद ज्वाला निकले खपरिया को तपा कर मनुष्यके मूत्रमें या | तो मूषा को सिंडासीचे निकालकर उन्टा करके घोडेके मूत्रमें अथवा तक्र या कांजीमें बझाने से वह आहिस्ता के झटका देकर पिघले हुवे सर्पर सस्व शुद्ध हो जाता है। को निकाल लें जो बंगके समान होगा । इसी प्रकार तीन चार बार भाने से सम्पूर्ण सत्व __ (९५८८) खपरशोधनम् (५) निकल आएगा। (र. र. स. । पू. खं. अ. २) । ___ (९५९०) स्वपरसत्वपातनम् (२) नरम स्थितो मासं रसको रायेदध्रुवम् । (र. र. स. । पू. खं. अ. २ ; आ. वे. प्र. । सुखसानं रसं तारं शुदस्वर्णसमप्रभम् ॥ अ. ९) खपरियाको १ मास तक मनुष्यके मूत्रमें | लाक्षागुडाऽऽमुरीपथ्या हरिद्रासर्जटणैः। भिगोए रखनेसे वह शुद्ध ताम्र, पारद और चांदीको | सम्यक् सन्चूये क्त्पक्वं गोदुग्धेन घृतेन च। रंग कर शुद्ध स्वर्णके समान कर देता है। वृन्ताफमूषिकामध्ये निरुध्य गुटिकोकृतम् । (९५८९) खर्परसत्वपातनम् (१) मात्वाध्यात्वा समाकृष्य ढालयित्वा शिलातले (र. र. स. । पू. खं. अ. २) सत्त्वं वाकृति ग्रामं रसकस्य मनोहरम् । हरिद्वात्रिफलारालासिन्धुधमैः सटाणैः। । सपरियाको लाख, गुड़, राई, हर्र, हल्दी, राल और सुहागेके साथ खरल करके गोदुग्ध में साकरेश्च पादांशः साम्लैः सम्मर्च खर्परम् और फिर गोघृतमें (पाठान्तरके अनुसार केवल विसं रन्ताकमूषायां शोषयित्वा निरुध्य च ।। गोदुग्धमें ही) पकाकर गोलियां बनावें और उन्हें मूषामुखोपरि न्यस्य खपरं प्रधमेत्ततः ॥ वृन्ताकमूषामें बन्द करके अग्निमें रखकर ध्मावें । खपरे पद्रुते ज्वाला भवेन्नीला सिता यदि । | तदा संदंशतो मूषां धृत्वा कृत्वा त्वधोमुखोम् ॥ १ आ. वे. प्र. में 'गोदुग्धेन प्लुतं तथा' शनैरास्फालयेद्भूमौ यथा नालं न भियते । । २ इन्ताकमूषाबनाभं पतितं सत्वं समादाय नियोजयेत् ।। वृन्ताकाकारमूषायां नालं द्वादशकाङ्गलम् । एवं त्रि चतुरेवारः सत्वं सर्व विनिःसरेत् ॥ धत्तरपुष्यवच्चोचं सुदृढ़ श्लिष्टपुष्पवत् ।। हल्दी, त्रिफला, राल, सेंधा नमक, घरका धुवां, अष्टाङ्गलं च सछिद्रं सा स्याद् वृन्ताकमूषिका । मुहागा और भिलावा; इनका समान भाग मिलित अनया खर्परादीनां मृदूनां सत्वमाहरेत् ॥ चूर्ण १ भाम तथा खपरिया ४ भाग लेकर सबको (र. स. स.) For Private And Personal Use Only

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