Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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६२४
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ककारादि
(९५४०) करञ्जयोगाः अरुचि मूत्रकृच्छं च हन्यात्पानात्ययं नृणाम् । (ग. नि. । अरोचका. २३)
अहानि सप्त चाष्टौ च नृणां पानात्ययः स्मृताः। कवलो धूमपानं तु चूर्णानि मुखधावनम् ।।
पानं हि भजतेऽजीर्णमत ऊवं विमार्गगम् ॥ कारखं दन्तकाष्ठं च विधेयमरुचौ सदा ॥ १ सेर कर्कन्धु ( झड़बेरीके बेर ) कूटकर
४ सेर पानीमें डाल दें और उन्हें अच्छी तरह अरुचि में कराके कवल धारण कराने चाहिये,
मलकर सात बार छान लें । इस पानी को मिट्टीके इसीका धूमपान कराना, इसीके चूर्णका मंजन कराना और इसी की दतौन करानी चाहिये ।
पात्रमें डालकर उसमें १० तोला गुड़, ५ तोला
खांड, १। तोला काली मिर्च, ३।। माशे केसर, (९५४१) करभस्वेदः ५ माशे दालचीनी, ५ माशे तेजपात, ११ तोला
(वै. म. र. । पटल १६) छोटी इलायची, ७॥ माशे कमलनाल; इनका बारीक विघृष्य करभौ प्रायः स्वेदयेन्नयने मुहुः ।
| चूर्ण तथा सुगन्ध योग्य जावित्री मिलाकर (अथवा वर्त्मसातपिडका नाशमायान्त्यसंशयम् ॥ । चमेली के फूलों से सुगन्धित करके) ढककर रख दें। दोनों हाथोंके करभ प्रदेश (पौंहचेसे कनिष्ठ
___इसे पीनेसे पान विभ्रम, सृषा, छर्दि, दाह, उंगली तक हथेली के किनारों ) को परस्पर घिस
अतिसार, प्रवाहिका, अरुचि, मूत्रकृच्छ्र भौर पानाकर उनसे बार बार सेकने से आंख की पलक की
| त्यय का नाश होता है। पिडिका नष्ट हो जाती है।
(९५४३) कर्णिकाररसयोगः (९५४२) कर्कन्ध्वादिपानकम्
(र. चि, म. । स्त. १०) __ (ग. नि. । मदात्यय.)
कर्णिकारस्य निर्दोषापल्लवांश्च समानयेत् । फर्कन्धुबदराणां च प्रस्थं कुर्यात् मुकुट्टितम् ।
कोमलानतिमात्रेण कुट्टयेत्तान्हढान्खलु ॥ द्विपस्थे गालयेतोये सप्तकृत्वः पुनः पुनः ॥
केवलं रसमानीय शोषयेदातपे स्थितम् । अथनं मृण्मये भाण्डे सुगुप्तं विनिधारयेत् ।
चूर्णयेच्च रसं शुष्कं विटङ्क तं प्रयच्छति ॥ द्वे च दद्याद्गुडपले शर्करायाः पलं तथा ||
मरिचानां त्रयं पश्चादधात्तदनुपानवत् । मूक्ष्मं च मरिचात्कर्ष चतुर्थ केसरस्य च ।
तेनैवात्र प्रयोगेण त्रिवार रेचयेन्चरम् ।। त्वपत्रधरणे द्वे च सूक्ष्मैला कर्षमेव च ॥
चतुष्टयं यदा दद्याचतुर्वारं विरेचनम् । मृणालादर्धकर्ष च सूक्ष्मचुर्णानि कारयेत् ।।
एवं भवेत्क्रमेणैव रेचनं पञ्चधाऽपि च ।। जातीवाससमायुक्तं पानकं पानविभ्रमम् ॥
| रेचयेदचिरेणैव कर्णिकाररसः परः ।। नाशयत्याशु पानेन छिन्नाभ्राणीव मारुतः । । कर्णिकार ( छोटे अमलतास ) के कोमल और एतच्छदि षां दाहमतीसारं प्रवाहिकाम् ॥ । निर्दोष ( जन्तु आदिसे रहित ) पत्तोंको अच्छी
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