Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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लेपप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
(९३९३) करवीरजटालेपः __यदि लेप लगाने से इन्द्री पर फुसियां निकल
( यो. त. । त. ८०) आवें तो उन पर धुला हुवा नवनीत ( मक्खन ) करवीरजटालेपं यः करोति नरो मणौ ।
लगाना चाहिये। वीर्यस्तम्भं स लभते कार्णाटीसुरतेष्वपि ।।
(रातको रोज़ लेप लगा कर नया पान बांधना
और उसे हर समय बांधे रहना चाहिये । प्रयोग इन्द्रि की मणि पर कनेरकी जड़का लेप करके
काल में इन्द्रो को ठंडा पानी न लगने देना चाहिये।) स्त्रीसमागम करनेसे वीर्यस्तम्भन होता है।
(९३९५) करवीरलेपः (९३९४) करवीरत्वगादिलेपः (व. से. । उपदंशा. ; शा. सं. । ख. ३ अ. ११) (न. मृ. । त. ६ )
करवीरस्य मृलेन परिपिष्टेन वारिणा ।
असाध्यापि बजत्यस्तं लिङ्गोत्था रुक् प्रलेपनात् ।। करवीरत्वन्द्विकर्ष दुग्वे प्रस्थद्वये पचेत् ।
____ कनेरकी जड़को पानीके साथ पीसकर लिङ्ग तच दुग्धं दधि कृत्वा मन्थनेन विलोडयेत् ।।
पर लेप करने से उपदंश जनित असाध्य लिंग पीड़ा नवनीतं विनिष्कृष्य स्वौषधिं तत्र निक्षिपेत् ।
भी नष्ट हो जाती है । जातीफलमजेपालं विषमाखुपाषाणकम् ॥
(९३९६) करवीरादियोगः विधिना मर्दयेत्लल्वे ततो लेपं समाचरेत् । ( वा. भ. । उ. अ. ३६ ) त्यत्त्वाग्रभागसीमानौ ताम्बूले तं प्रवेष्टयेत् ॥ करवीराकुमममललाङ्गलिकाकणाः। पिडिका चेद्भवेच्छुद्धनवनीतेन लेपयेत् । कल्कयेदारनालेन पाठामरिचसंयुताः ॥ पण्डत्वनाशनार्थाय लेपोयं समुदाहृतः॥ एष व्यन्तरदष्टानामगदः सार्वकार्मिकः ।। ___२॥ तोले कनेरकी जड़ को पीसकर २ सेर ___कनेरकी जड़, कनेरके फूल, आककी जड़, दुधमें मिलाकर पकायें और फिर उसका दही जमा आकके फूल, कलियारीकी जड़, पीपल, पाठा और कर मक्खन निकालें । तदनन्तर जायफल, जमाल- | काली मिर्च समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । गोटा, शुद्ध बछनाग और शंखिया ( समान भाग ___इसे कांजी में पीसकर लेप करने तथा पिलाने मिलित २॥ तोला ) उस मक्खन में मिलाकर अच्छी आदि से व्यन्तर ( एक विशेष जाति के सर्प) का तरह खरल करें।
विष नष्ट होता है। ____ इन्द्री के अग्रभाग और सीवनको छोड़कर शेष (९३९७) करवीरादिलेपः (१) भाग पर यह लेप मलकर ऊपर से नागरवेल (वा. भ. । चि. अ. १९) पान बांध दें।
करवीरनिम्बकुट नाच्छइस प्रकार कुछ दिनों करनेसे नपुंस्कता नष्ट । ___म्पाकाचित्रकाच मूलानाम् । हो जाती है।
मृत्रे दर्जीलेपी क्वाथो लेपेन कुष्ठनः ॥
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