Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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६०८
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[ककारादि
मात्रा-७|| माशे।
चाशनी में मिलाकर घी में या घृतकुमारी के अनुपान-मिश्रीयुक्त दूध ।
| रसमें १ पहर घोट कर बेरकी गुठली के समान इसके सेवनसे वीर्य वृद्धि होती है. श्री गोलियां बना लें । शरीर पुष्ट हो जाता है तथा क्षय, कास, श्वास,
। इसके सेवन से शोथयुक्त कफज पाण्डु का अतिसार, अग्निमांद्य, अर्श, ग्रहणीरोग, प्रमेह. ! नाश होता है । कफविकार और रक्तविकारों का नाश होता है। (९४९८) काम्वायनरसः इसे १ वर्ष तक सेवन करने से पलित रोग भी (र. का. धे. । कुष्ठा.) नष्ट हो जाता है । यह प्रयोग स्तम्भक, स्त्रीद्रावक भस्ममृतं समं गन्धं स्वजिकाक्षारकाचनी । और श्रेष्ठ रसायन है । इसके सेवनसे वाचाशक्ति प्रत्येकं च द्विभागं स्यात्सर्वतुल्पतैः सह ।। भी बढ़ती है।
पिष्ट्वा मृग्निना पच्याधावत्पिण्डत्वमागतम् । (९४९७) कामेश्वरी वटिका | निष्काधे भक्षणाद्धन्निकुष्ठं काम्बायनो रसः ।। • (र. का. धे. | पाडा.)
देवदाल्याः सुचूर्ग तु मध्वाज्याभ्यां लिहेदनु ॥ शुद्धसूतं तथा गन्धं कर्ष कष समाहरेत् ।
___ पारद भस्म, शुद्ध गंधक, सज्जीखार और हरीतक्या रजः कर्षस्तावन्तश्चित्रकस्य च ।।
हल्दी (अथवा स्वर्णक्षीरी मूल-चोझ) समान भाग
लेकर एकत्र खरल करें और फिर उसमें सबके एलापत्रकमुस्तानां योज्यं सार्धपलं पृथक् ।
बराबर घी मिलाकर, खरल करके मन्दाग्नि पर कणामूलं त्रिकटुकं विषं कर्ष पृथक् भवेत् ॥
९१ ।। | पकावें । जब सबका एक पिण्ड सा हो जाय तो पाठा च रेणुकं कर्ष निष्कं स्यानागकेशरम् ।
यानागकेशरम्। उतार कर, शीतल करके सुरक्षित रखें । सर्वतुल्येन जीर्णेन गुडेनैव प्रपाचयेत् ॥
मात्रा-आधा निष्क । घृतेन मर्दयघामपथवा कन्यकाद्रवैः ।।
अनुपान-औषध खानेके पश्चात् देवदाली कारयेत्कोलबीजाभां नित्यं तां भक्षयेद् गुटिम् ॥
| (बिंडाल ) का चूर्ण शहद और घीमें मिलाकर सशोथं कफर्ज पाण्डं जयेत्कामेश्वरी वटी॥
खाना चाहिये। ____ शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, हर्र, चीतामूल, सोंठ,
इसके सेवनसे कुष्ठ नष्ट होता है । मिर्च, पीपल, शुद्र बछनाग, पाठा और रेणुका
(९४९९) कालकूटरसः ११-१। तोला; नागकेसर : || माशे तथा इलायची, तेजपात और नागरमोथा ७॥-७|| तोला लेकर ( र. यो. सा. ; वै. चि. । ज्वरा.) प्रथम पारे गंधक की कज्जली बनावें और फिर रुद्रसङ्ख्य विषञ्चैब त्रिभागः सूत एव च । उसमें अन्य ओषधियों का चूर्ण मिलाकर खरल गन्धकः पञ्च भागः स्याच्छिला स्यातुमाकरें। तत्पश्चात् उसे सबके बराबर पुराने गुड़की।
गिका ॥
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