Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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अकारादि-रस
(९९)
सभिपातं निहन्त्याशु ज्वरांश्च विविधांस्तथा । । बनावे । इनमें से एक अथवा दो गोलीयां खानेसे ___ शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक दो-दो माशे | अजीर्ण शांत हो जाता है, अग्निकी वृद्धी होती है लेकर दोनोंकी कजली करके भांगरा, सुगन्धवाला, | और कफका नाश होता है। निर्गुण्डी, ब्राह्मी, गर्मा, सफेद कोयलकी जड़,शालिञ्च | [२७९] अजीर्णकण्टकोरसः -शाक, कालमारिष (बड़े पत्ते की चौलाई) और सफेद | ( भै. र., रसें. चि. म., अ. ९; यो. र. अजी.) सूर्यावर्तके चार-चार माशे स्वरसकी भावना देकर शुद्धसूतविषगन्धकं समंतुल्यभागमरिचंच चूर्णितं पीछे सोना मक्खी भस्म १ माशा, काली मिर्च १ । मर्दयेत्त वृहत्तीफलद्रवैरेकविंशतिविभावितं पुनः॥ माशा मिलाकर सबको नेपाली तांबेके मूसले से | गुञ्जिकात्रयमिदं सुभक्षितंसद्य एव जठराग्निवर्धनं । घोटकर कजलीके समान करे। फिर मूंगके समान एपकंटकरसोविचिकाजीर्णमारुतगदानिहन्तिच गोलियां बनावे । उनको छायामें सुखाकर अच्छी शुद्ध पारा, शुद्ध वच्छनाग और शुद्ध गन्धक तरह रख छोड़े। जिसने पसीना और उपवास | १-१ भाग तथा काली मिर्च ३ भाग। प्रथम किया हो तथा क्लेशित शरीर और अतिनिर्बल ||
पारे गन्धककी काली बनाकर और फिर अन्य पुरुषको प्रथम दिन ३ वटी मिट्टीके कोरे शरावमें
सबका चूर्ण मिलाकरके कटेलीके फलके रसकी रखकर भगवान भास्करकी पूजा करके उन्हें प्रणाम करें और फिर गोलियोंको पानीमें घोलकर रोगीको
| २१ भावना देवे, फिर तीन २ रत्तीकी गोलियां
बनावे । एक २ गोली नित्य खानेसे अग्निकी वृद्धि पिलादें। इसी प्रकार दूसरे दिन २ गोली, तीसरे । दिन १ गोली देवे, जितनी गोली देवे उतनी ही
तथा विसूचिका अजीर्ण और वातरोगोंका नाश
| होता है। सरैया जलकी देनी चाहिएं, और अग्निका बलाबल
। [२८०] अजीर्णवल-कालामलो रसः देखकर पथ्य देना चाहिये। यदि इसके सेवन
(र. रा. सुं.। अजी.) करनेसे शिरका घूमना, तथा मस्तक शूल हो तो नारायण तैल आदिका मर्दन करना चाहिये। इसके
द्विपलं शुद्धसूतं च गन्धकं च समं मतम् । सेवनसे सन्निपात और अन्य विविध प्रकारके ज्वर
लोहं तानं हरितालं विषं तुस्थं सबङ्गकम् ।। शीघ्रही नष्ट हो जाते हैं।
पलप्रमाणं च प्रथग् लवङ्गं टङ्कणं तथा । [२७८] अजीर्णकंटकोरसः (भा.प्र.। अजी.) | दन्ती मूलं त्रिवृच्चूर्णमेकैकं पलसम्मितम् ।। टकणकणामृतानां सहिङ्गुलानां समं भागाः।। अजमोदो यवानी च द्विक्षारौ लवणानि च। मरिचस्स भागयुगलं निम्बूनीरैवटी कार्या॥ पृथगर्द्धपलं ग्राह्यमेकीकृस्य च भावयेत् । पटिका कलायसदृशीमेको द्वे वा समश्नीयात्। आर्द्रकखरसेनैकविंशतिं पश्च कोलजैः। सत्यमजीर्णे शान्त्यै वह्वेर्बुद्धथैः कफध्वस्त्यै ।। | दशधा भावयेत्तोयैर्गुडूचीनां रसैर्दश ॥
सुहागेकी खील, पीपल, शुद्ध बच्छनाग और | सर्वार्द्ध मरिचं दत्वा काचकुप्यां च धारयेत् । हिंगुल १-१ भाग, काली मिर्च २ भाग लेकर चणमात्रां वटीं कृत्वा छायायां परिशोषयेत् ।। नींबूके स्वरससे खरल करके मटरके समान गोलियां रसोजीर्णवलकालानल एष प्रकीर्तितः।
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