Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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(१८४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
मिसरी, केतकी, जीरा, केला, खजुर और चमेली | साथ सेवन करने से २५ वर्ष का पुराना प्रमेह के पत्ते इनकी ३ भावना दें।
| नष्ट होता है । इसके ऊपर २१ दिन तक गाय के ___इसे ३ रत्ती की मात्रा में सेवन करना चाहिये।
नौनी धी (नवनीत) के साथ पथ्य भोजन करना मधु के साथ देने से बालकों के शोष, सन्ताप, |
चाहिये । गेहूं के काथ के साथ ३ दिन तक
| सेवन करने से ३० साल का प्रमेह नष्ट होता है। निर्बलता और तृषा का नाश होता हैं। वासे के |
इस प्रयोग में घृत और गुड़ युक्त आहार देना रस के साथ सेवन करने से ७ दिन में प्रमेह का
चाहिये । इस औषधि को ३ दिन तक शहद और नाश हो जाता है। इस प्रयोग में दूध भात खाना
ईख का रस तथा खांड के साथ सेवन करने से चाहिये । बबूल की नवीन कोंपलों के रस में चीनी ! देह का संताप और स्त्रोतों का स्फुटन नष्ट होता मिला कर उस के साथ सेवन करने से २० वर्ष है। इस के ऊपर इमली का रस और गुड़ युक्त का प्रमेह ३ दिन मे ही नष्ट हो जाता है । इसे अन्न खिलाना चाहिये । इसे ३ दिन तक मुनक्का सेवन करने पर २१ दिन तक घी और मिश्री युक्त और मिश्रीके साथ सेवन करने से लंघन जनित आहार करना चाहिये । त्रिकला और शहद के ' शोष नष्ट होता है।
अथ ऊकारादि कषाय-प्रकरणम् [५३९] ऊषकादिगणः (सु. सं. सू.अ.३८) ऊपर मिट्टी (रेह) सेंधानमक, शिलाजीत, दो ऊपकसैन्धवशिलाजतुकासीस
प्रकार का कसीस, हींग और नीलाथोथा । द्वयहिगुनि तुत्थकं घेति । यह ऊषकादि गण कफ नाशक, मेद शोषक, उपकादिः कर्फ हन्ति गणो मेदो विशोषणः। (चरबी को सुखाने वाला) पथरी, शर्करा, मूत्रकृच्छ्र, अश्मरीशर्करामूत्रकृच्छ्रशूल कगुल्मनुत् ॥ 'शूल एवं गुल्म नाशक है ।
अथ ऊकारादि चूर्ण-प्रकरणम् [५४०] ऊषणादि चूर्णम् (भै. र. परिशि.)। काली मिर्च, पीपलामूल, कूठ, गजपीपल, ऊषणं पिप्पलीमूलं कुष्ठं वारणपिप्पलीम् । नागरमोथा, मुल्हैठी, मूर्वा, भारंगी, मोचरस, सोया
(या बंसलोचन), इन्द्र जौ, अतीस, वांसा, गोखरू,
दोनों कटेली। यवश्वातिविषा वासा गोक्षुरं बृहतीद्वयम् ।
सब चीजें समान भाग लेकर कूट कर चूर्ण करें। संचूये समभागानि भाषमानेन योजयेत् ॥
___ इसे १ माथे की मात्रा से सेवन करने से ऊषणायमिदं चूर्ण विस्फोटं लोहितज्वरम् । | विस्फोटकञ्वर, लाल बुखार, रोमान्तिका, जीर्ण ज्वर रोमान्तिको ज्वरं जीर्ण हन्याचापि मसरिकाम् ॥ और मसूरिका का नाश होता है।
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