Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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ककारादि - अवलेह
(२४५)
(जिसमें पेठा पकाया था वह ) जल और ६ | सेर त्वगेलापत्रमरिचधान्यकानां पलार्धकम् ।
खांड डाल कर पकावें । जब लेहके समान गाढ़ा हो जाय तो उसमें पीपल, शहद और जीरे का चूर्ण १०–१० तोला, धनिया, तेजपात, इलायची, काली मिर्च और दाल चीनी प्रत्येक का चूर्ण २||२|| तोला मिलावें एवं ठंडा होने पर ०|| सेर शहद मिलाकर रक्खें ।
तद्यथाग्निबलं खादेद्रक्तपित्ती क्षतक्षयी ॥ कासश्वासत मच्छर्दि तृष्णा ज्वरनिपीडितः । वृष्यं पुनर्नवकरं बलवर्णप्रसादनम् || |उरः सन्धानकरणं बृंहणं स्वरबोधनम् । अश्विभ्यां निर्मित श्रेष्ठ कूष्माण्डकरसायनम् ॥ खण्डामलकमानानुसारात्कुष्माण्डकद्रवात् । पात्रं पाकायदातव्यं यावान्वात्र रसो भवेत् ॥*
पेठे के छिले हुवे साफ़ और उबले हुवे ६ । सेर टुकड़ों को तांबे के पात्र में २ सेर घी में भूने। जब पकते २ शहद के समान हो जांय तो उन में ६। सेर खांड तथा पीपल, सोंठ और जीरे का चूर्ण १०-१० तोला तथा दालचीनी, इलायची, तेजपात, काली मिर्च और धनिये का २॥ - २॥ तोले चूर्ण मिला कर पकाने और करछी से चलाते रहें। जब गाढ़ा हो जाय तो उतार कर ठंडा होने पर उसमें १ सेर शहद डाल कर रक्खें ।
इसे अग्नि बलानुसार यथोचित मात्रा में सेवन करने से रक्तपित्त, क्षय, ज्वर, शोथ, तृष्णा, आंखों के आगे अंधेरा आना, वमन, खांसी, श्वास और क्षत का नाश होता है।
यह अवलेह बालक और वृद्धों के वास्ते हितकारी, उरसन्धान कारक, वृष्य, वृंहण और बलकारक है। [८०६] कूष्मांड खंडलेह : (३)
(शा. ध. म. खं. अ. ७) युक्तया कूष्मांड खंड च सरणं विपचेत्सुधीः । अर्शसां मूढवातानां मंदाग्नीनां च युज्यते ॥
पेठे और ज़िमिकन्द के टुकडों को यथा विधि पकाकर सेवन करनेसे बवासीर, मूढ़वात और मन्दाग्नि का नाश होता है ।
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इसे अग्नि बलानुसार यथोचित मात्रा में सेवन करने से रक्तपित्त, क्षत, क्षय, खांसी, श्वास, तम, छर्दि, तृष्णा और ज्वर का नाश होता है ।
यह अवलेह वृष्य, नवजीवन-दाता, बल वर्द्धक, वर्ण शोधक, उरः सन्धान कारक, वृंहण, स्वर को तीव्र करने वाला अत्युत्तम रसायन है 1 [८०८] कूष्मांडगुडः
च. द; वृ. मा;)
(वृ. नि. र. । संग्र; भै. र । ग्रह.)
कूष्माण्डकात्पलशतं सुस्विनं निष्कुलीकृतम् । कूष्मांडानां सुपक्कानां स्विन्नानां निष्कुलत्वच । पचेत्पात्रे घृतप्रस्थ शनैस्ताम्रमये दृढे ॥ सर्पिः प्रस्थे पलशतं ताम्रपात्रे शनैः पचेत् ॥ यदा मधुनिभःपाकस्तदा खण्डशतं न्यसेत् । पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकं गजपिप्पली । पिप्पलीशृङ्गवेराभ्यां द्वेपले जीरकस्य च ॥ * नोट:- इस पाक में पेठे को पकानेले जो न्यसेच्चूर्णीकृतं तत्र दर्या संघट्टयेत्पुनः । रस निकलेगा वह सब अथवा उसमेंसे ४ तत्पक्कं स्थापयेद्भाण्डे दत्वा क्षौद्रं घृतार्द्धकम् ॥ सेर रस पाकर्मे डालना चाहिए।
[८०७] कूष्माण्डखण्ड : ( ४ ) (भैर; र. रा. सुं; रसे. सा. सं; वै. र; | र. पि; वा. भ.चि. अ. र; भा. प्र र. र; धन्व; व. से;
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