Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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ककारादि-अवलेह
(२४७)
की खील (२) कुटकी, नागरमोथा और गेरु । फिर उसमें जायफल, त्रिकुटा, त्रिगन्ध (दाल(३) पीपल, आमला, मिश्री और सोंठ। (४) चीनी, तेजपात, इलायची), लौंग, अकरकरा, शुद्ध कसीस और कैथ । (५) पाढल के फूल | जावित्री, काकोली, नागकेसर और पुनर्नवा प्रत्येक और फल । (६) पीपल, खजूर और नागरमोथा। १०-१० तोला, मूसली, अफीम, पारद (रस
इन छः प्रयोगों को मधु के साथ सेवन करने | सिन्दूर) लोहभस्म और अभ्रक भस्म प्रत्येक २॥से हिचकी का नाश होता है।
२॥ तोला, चन्दन, अगर, कस्तूरी और कपूर [८१२] कोलायवलेहः
प्रत्येक ४-४ माशा लेकर सब चीजों का चूर्ण ___ (वृ. नि. र; वृ. मा; व. से; यो. चि. म. | करके मिलावें। अ. २। छर्दि.)
इस अवलेह को २ तोला की मात्रानुसार कोलामलकमज्जानौ मक्षिकाविद सिता मध। सेवन करने से उत्तरोत्तर बलवीर्य की वृद्धि होती है। सकृष्णातंदुलो लेहश्छदिमाशु व्यपोहति ॥ [८१४] कुबेरपाकः (वृ. नि. र. । वा. व्या.) ___ बेर और आमले की गुठली की गिरी; मक्खी कुबेरं प्रस्थनीरे च क्षिप्त्वा रात्रौ चतुर्गुणम् । की विष्टा, मिश्री, शहद और पीपल को पीस कर क्षीरे प्रातः पचेत्सम्यग्घृतेन मृदुवन्हिना । चावल के पानी के साथ लेह बनाकर चाटने से शीतं कृत्वा सुनिष्पन्न मध्ये मधूनि योजयेत् । छर्दि का नाश होता है।
चातुर्जातं त्रिकटुकं जातिपत्रफलं तथा । [८१३] कपिकच्छूपाका(यो. र. । उ. .) देवपुष्पं विडंगं च मिशी जीरं धनं बला। निस्तुषं वानरीबीजं कृत्वा विंशत्पानि च। निशाद्वयं तथा लोहं शुल्वं वंगं पलाधकम् । त्रिंशत्पलां सितां दत्त्वा घृतं दत्त्वा पलाष्टकम् ॥ प्रत्येकं चूर्णितं क्षिप्त्वा भक्षयेच्च पलं बुधः । दुग्धाढकसमायुक्तं मृदुना वन्हिना पचेत् ।। सर्वान्वातमयान्हति चाग्निमांद्य बलक्षयम् ॥ याव:प्रलेपः स्यात्तन्मध्ये चूतं क्षिपेत् ॥ | प्रमेहं मूत्रकृच्छ्रे च चाश्मरीगुल्मपांडुनुत् । जातीफलं त्रिकटुकं त्रिगन्धं देवपुष्पकम् । पीनसं ग्रहणीदोषमतीसारमरोचकम् ॥ अकल्करं जातिपत्री कोकिला बीजकेसरम् ।। । मधुपक्कः कुबेरोयं भक्षयनितरां बुधः । पुनर्नवापले द्वे च मुसली साहिफेनकम् । । कामवृद्धिकरस्तस्य धातुवृद्धिश्च जायते ॥ पारदं लोहचूर्ण च त्वभ्रकं च पलार्धकम् ।। कांतिपुष्टिकरी बल्यः कुबेराख्यो रसोत्तमः॥ चन्दनागरुकस्तूरीकपूरं शाणमात्रकम् ।
लता करजंवों को रात्रि के समय २ सेर पलार्ध भक्षयेत्तत्तु क्रमाद्वीयवलपदम् ॥ पानी में भिगोदें और प्रातः काल (उनकी गिरी
कौंचके छिले हुवे बीज १। सेर, खांड निकालकर उसे) ४ गुने दूध तथा घी के साथ १ सेर १४ छटांक, घी १ सेर और दूध ८ सेर । मंदाग्नि पर पकावें और पाक सिद्ध हो जाने पर लेकर सब को एकत्र करके मन्दाग्नि पर इतना ठंडा करके उसमें शहद तथा चातुर्जात (दालचीनी, पकावें कि गाढ़ा होकर करछी को लगने लगे। । तेजपात, नागकेसर, इलायची) त्रिकुटा, जायफल,
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