Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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ककारादि-रसप्रकरणम्
(२८७)
[९५५] कफकेतुरसः (१)
कफगदकुलकेतुः स्याद्रसो माषमात्रः । (र. रा. सुं। कास.) समधुरिति निहन्ति प्रोत्कटं श्लेष्मरोग । आकल्लकं च सविषं समुद्रफलसंयुतम्। अनुभवति कषायौनिम्बजः पेयमस्मिन् (?) प्रत्येकं समभागं च द्विगुणं मरिचं ततः॥ | पवनशमनमात्रं (?) पथ्यमुष्णाम्बुसेव्यम् । आर्द्रकस्य रसेनैव मर्दयित्वा प्रयत्नतः।
___ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्रभस्म, शुद्ध गुञ्जामात्रामिमां चैव वटी कुय्योद्विचक्षणः॥ | हरताल, पोखरमूल, हींग, सेंधानमक और कुटकी भुक्तेयं नाशयत्याशु कफरोगं न संशयः॥ | के चूर्ण को एकत्र करके चौलाई, देवदाली, कड़वी
___ अकरकरा, शुद्ध मीठा तेलिया और समन्द- तोरी और नीले फूलवाले संभालू के रसकी भावना रफल १-१ भाग और कालीमिर्च २ भाग लेकर । देकर उड़द के बराबर गोलियां बनावें । अदरकके रसमें घोटकर १-१ रत्ती की गोलियां
इसे शहद के साथ खाकर ऊपर से नीमका बनावें। इन्हें सेवन करनेसे कफरोगोंका नाश
क्वाथ पीनेसे प्रबल कफ का नाश होता है। होता है।
पथ्य-वायु न करने वाले पदार्थ और [९५६] कफकेतुरसः (२)
ऊष्ण जल। (र. रा. सुं। कासे)
[९५८] कफकेतुरसः (४) भर्जितं टंकणं क्षारं पिप्पलीमरिचं तथा ।
(र. रा. सुं। कर्ण.) आकल्लकं विषं शुद्धं वराटीभस्म एव च ।।
| व्योषमिजलबीजं च शंखभस्मविषान्वितम् । सर्वाणि समभागानि सूक्ष्मचूर्ण विधाय च। द्विगुञ्जमात्रकं दद्यात् कफकेतुरयं रसः॥ |
| मरिचसदृशं खादेत् कफकेतुमहारसम् ॥ कासश्वासौ शीतवातं नाशयेन्नात्र संशयः॥
त्रिकुटा, समुद्रफल, शंख भस्म और शुद्ध सुहागे की खील, पीपल, कालीमिर्च, अकर.
। मीठा तेलिया, बराबर २ लेकर काली मिर्च के करा, शुद्ध मीठा तेलिया और कौड़ी की भस्म, |
समान गोलियां बनावें। बराबर २ लेकर महीन चूर्ण करें। ___ इसके सेवन से कफज रोगों का नाश होता है । ___ इसे. २ रत्ती मात्रानुसार देने से खांसी, श्वास | [९५९] कफकेतु रसः (५) और शीतवायु का नाश होता है।
(रसे. सा. सं. । कफरो.) [९५७] कफकेतुरसः (३) टंकणं मागधी शङ्ख वत्सनाभं समं समम् ।
(र. रा. मुं. । कासे; र. का. छर्दि.) आर्द्रकस्य रसेनापि भावयेदिवसत्रयम् । रसवलिरवितालान् पौष्करं हिंगुसिन्धूद्भवम् । गुजामात्रं प्रदातव्यमार्द्रकस्य रसेन वै । कटुकीरजस्तत् सर्वमेकत्र पिष्टम् ॥ पीनसं श्वासकासश्च गलरोगं गलग्रहम् ।। घनरवसुरदालीतिक्तकोशातकीभिः। दन्तरोगं कर्णरोग नेत्ररोग सुदारुणम् । तदनु च ननु भाव्या (१) कृष्णनिर्गुण्डिनीरैः।। सन्निपातं निहन्त्याशु कफकेतुरसोत्तमः ।।
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