Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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एकारादि-कषाय
(१८५)
[५४१] ऋतुहरीतकी (च. पा.) | सेंधानमक के साथ शरदऋतु (आसौज, कातिक)में ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां मेघावनखेऽम्बरे खांड के साथ, हेमन्तरतु (अधन, पौष) में सोंठ सार्द्ध शर्करया शरद्यमलया शुण्ठया तुषारागमे । के साथ, शिशिरऋतु (माध फाल्गुन) में पीपल के पिप्पल्या शिशिरे वसंतसमये सौदेण संयोजिताम | साथ और वसन्त ऋतु (चैत, वैसाख) में शहद के इत्थंप्राश्य हरीतकीमिव रुजो नश्यन्तु ते शत्रवः | साथ सेवन करना चाहिये ।
हैड़ को ग्रीष्मऋतु (जेठ अषाढ़) में समान इस प्रकार हरीतकी को सेवन करने से समस्त भाग गुड़ के साथ, वर्षाऋतु (सावन भादों) में | रोग नष्ट होते हैं।
अथ एकारादि कषाय-प्रकरणम् [५४२] एरण्डद्वादशकम्
तत्काथो यावशूकाढयः पाहत्कफशूलहा ॥ (वृ. यो. त. ९४ त.)
१० तोले एरण्डमूल को १ सेर पानी में एरण्डफलमूलानि बृहतीद्वयगोक्षुरम् ।
पकाकर चौथाई भाग शेष रहने पर छान कर उस पणिन्यः सहदेवी च सिंहपुच्छीक्षुबालिकाः॥
में यवक्षार डाल के पीने से पसली का दर्द, हृच्छल तुल्यैरेतैः शृतं तोयं यवक्षारयुतं पिबेत् ।।
और कफज शूल का नाश होता है।
| [५४४] एरण्डस्वरसः (वृ. नि.र. । काम.) पृथग्दोषभवं शूलं हन्ति चातित्रिदोषजम् ॥
वातरेश्च जटाद्रावं कर्षाद्ध दुग्धमिश्रीतं । ___ अरण्ड के बीज, अरण्डमूल, दोनों कटेली,
पाययेत्त प्रतिदिनमेवमेव दिनत्रये ॥ गोखरू, मुद्गपर्णी, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, सहदेवी,
धृतं दुग्धोदनं पथ्यं कुर्याद्वै लवणं विना ।। सिंहपुच्छी और छोटी ईख (या तालमखाना)।
कामलां नाशयत्याशु वायुनानं हरेद्यथा ।। ___यह सब चीजें समान भाग लेकर क्वाथ
___एरण्डमूल का स्वरस ७॥ माषा, दूध में मिला बना कर उस में जवाखार का प्रक्षेप डाल कर पीने
कर तीन दिन तक पीने और घृत तथा दूध भात से पृथक् पृथक् दोषों से उत्पन्न हुआ तथा त्रिदोषज
का लवण रहित आहार करने से कामला का शूल नष्ट होता हैं।
अत्यन्त शीघ्र नाश होता है। [५४३] एरण्डमूलादि क्वाथ: [५४५] एरण्डादिः (१) (यो. र. वा. व्या.) (वृ. नि. र. शू.)
एरण्डबिल्वं बृहतीद्वयं च एरण्डमूलं द्विपलं जलेष्टगुणिते पचेत् ।
सौवर्चल व्योषसुरामुठं च ।
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