Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मकारादि-रस
(१०५)
इन दोनों को कम्वल के टुकड़े में बांध कर जल | अगस्त्यपुष्पतोयेन पिष्टं शूरणकन्दगम् । (काजी) में भिगों देवे तीसरे दिन निकाल कर किसी ! गोष्ठभूमिगतं मासं जायते रससनिभम् ॥ बड़ी परातमें उस कंबलकी पोटली को मसले जिस | अभ्रक को अगस्त्यपुष्पों (वकपुष्पों) के रस में से सब अभ्रक बारीक होकर छनकर कंबल से । रगड़कर जिमीकन्द के बीच में भर कर जिमीकन्द बाहर निकल आवे । उस स्वच्छ बारीक अभ्रक को के टुकड़े से बन्द कर गौत्रों के रहने के स्थान में ले लेवे । इसमें से कोई कंकड़ी आदि अन्य वस्तु | पृथ्वी में गाढ़ देवे। फिर एक महीने के बाद पहिले ही निकाल देनी चाहिये । इसे धान्याभ्रक | निकाले यह अभ्रफ शुद्ध और रस के समान हो कहते हैं यही मारण आदि सब कर्मों में लेना जाता है। चाहिये ।
[२९७] अभ्रकभस्मविधि (र. सा. सं.) [२९४] दूसरा प्रकार
वजानकं समादाय निक्षिप्य स्थालिकोदरे। __(र. सा. सं, यो. र; रा रा. सु. आ. रम्भादिक्षारतोयेन पचेगोमयवहिना ॥ वे. प्र, अ. ४ ।)
यावत्सिन्दूरसंकाशं न भवेत्स्थालिकाबहिः। त्रिफलाकाथगोमूत्रक्षीरकाञ्जिकसेचितम् । सेचनीयं ततः क्षीरस्ततः सूक्ष्म विचूर्णयेत् ।। मखायौ सप्तधा व्योम तप्तं तप्तं विशुध्यति ॥ शुद्ध वनाभ्रक को आगे कहे हुये केले आदि
बज्राभ्रक को कोयलों की तीक्षणाग्नि में धोकनी के खार (खार के पानी) में खूब घोटकर एक मिट्टी से धमाकर लाल करके त्रिफले के काथ में बुझावे के पात्र में डाले । इस पात्र को गोवरी (उपलों) ऐसे ही सात २ वार गरम करके त्रिफले के क्वाथ, | की आग में रख कर तब तक तीक्षण आंच देता गोमूत्र, दूध और कांजी में बुझावे तो अभ्रक शुद्ध | रहे जब तक उस पात्र का वर्ण अग्नि के तापसे हो जाता है।
| सिन्दूर के समान लाल न हो जाय, फिर अग्निं से [२९५] तीसरा प्रकार
निकालकर दूध में बुझाकर चूर्ण करे (निश्चंद्र होने (र. सा. सं, वृ.यो. त.। र. म. ११, र. रा.. पर्यन्त ऐसा ही करे) तो अभ्रक की भस्म हो
सु; आ. वे. प्र., अ. ४ । जाती है। अथवा पदरीकाथे ध्मातमभ्रं विनिःक्षिपेत् । । [२९८] दुसरी विधि (र. रा. सं.,र.रा.सु., मर्दितं पाणिना शुष्कं धान्याभ्रादतिरिच्यते ॥ र.म., रसे.चि.म.। अ.४ । आ.वे.प्र.। अ.४ । वृ. ___ अथया अभ्रक को तीक्षणाग्नि में तपा २ कर यो.त, त. ४१ । यो. र.) * बेरी के क्वाथ में बुझावे, फिर सुखाकर हाथों से धान्याभ्रकं समादाय मुस्त काथैः पुटत्रयम् । मल कर बारीक कर ले, यह अभ्रक शुद्ध होता है | तद्वत्पुनर्नवानीरैः कासमईरसैस्तथा ॥ और धान्याभ्रक से भी अच्छा होता है। नागवल्लीरसैः सूर्यक्षीरेयं पृथक् पृथक् । [२९६] अभ्रकद्रावणम | दिनं दिनं मईयित्वा क्वाथैटजटोद्भवैः ।। (र. सा. सं., र. म., रा रा. सु., रसे. चि. यो.र.में सूर्यक्षार की जगह गोदुग्ध है म. । अ. ४)
तथा लोधके पुटका अभाव है।
For Private And Personal Use Only