Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
ग्रहणी, क्षय, श्वास और अरुचि, अम्लपित्त, रक्तपित्त । लोहे विशाले सुदृढे मृन्मये वा विचक्षणः
और पांडु नाशक तथा स्वास्थ्य संरक्षक है। | यावन्मात्राकाःखण्डास्तावऽमात्रीगुडः स्मृतः।। [४०६] आर्द्रकखण्डम्
दाचालनयोगेन पाचयेन्मृदुवहिना ॥ (पृ. यो. त. १२१ त. भै. र. शीतपीत्त.) सम्यक्पक्कं ततो ज्ञात्वा द्रव्याणीमानि दापयेत् ॥ आर्द्रकं प्रस्थमेकं स्याद्गोघृतं कुडवदयम् ।
विश्वाजाज्युषणं नागकेसरं जातिपत्रिका ॥ गोदुग्धं प्रस्थयुगलं तदर्धा शर्करा मता।
एलात्वग्पत्रमगधाधान्यकं कृष्णजीरकम् ॥ पिप्पलीपिप्पलीमूलमरिचं विश्वभेषजम् ।
ग्रंथिकं च विडङ्ग च तस्मिन्शीते प्रदापयेत् ॥ चित्रकं च विडङ्गं च मुस्तकं नागकेसरं ॥
पलार्द्धमपिभुञ्जीत शीतकाले विशेषतः ।। त्वगेलापत्रकचूंरं प्रत्येकं पलमात्रकं ।
श्वासं कासं स्मृतिभ्रंशं स्वरमंगमरोचकम् ।। विधाय पाकं विधिवत्खादेदेतत्पलोन्मितम् ॥ हद्राग ग्रहणागुल्मशूलशाकानवारयत् ।। इदमाईकखण्डाख्यं प्रातर्भुक्तंव्यपोहति ।
" अद्रक को (छील कर) बारीक बारीक टुकड़े
करके लोहे या मिट्टी के दृढ़ पात्र में गाय के घी में शीतपित्तमुदर्द च शीतमुत्कोठएव च ॥
भूने फिर उसमें अद्रक के बराबर गुड़ मिलाकर यक्ष्माणं रक्तपित्तं च कासश्वासमरोचकम् ।
मन्दाग्नि पर पकावे और करछली से चलाता रहे । वातगुल्ममुदावर्त शोथकण्डूकमीनपि ॥
जब पाक सिद्ध हो जाय तो ठण्डा करके उसमें दीपयेदुदरे वहि बलवीर्य विवर्धयेत् ।
इन चीजों का चूर्ण मिलावे । सोंठ, जीरा, काली वपुः पुष्टं प्रकुरुते तस्मात्सेव्यमिदं सदा ॥
| मिर्च, नागकेसर, जावित्री, इलायची, दारचीनी __ अद्रक २ सेर, गाय का धी १ सेर, गाय का
तेजपत्र, पीपल, धनिया, काला जीरा, पीपलामूल दूध ४ सेर, चीनी १ सेर ।।
और बायबिडंग। प्रक्षेप-द्रव्य–पीपल, पीपलामूल, कालीमिर्च,
इसे प्रतिदिन २॥ तोले की मात्रा में सेवन सोंठ, चीता, बायबिडंग, नागरमोथा, नागकेसर,दार
करने से श्वास, खांसी, स्मरणशक्ति की कमी, स्वरचीनी, इलायची, तेजपत्र और कचूर का चर्ण ५-५ |
भंग, अरुचि, हृद्रोग, ग्रहणी, गुल्म, सूजन और तोला । यथा विधि पाक सिद्ध करके प्रातः काल | शूल का नाश होता है । ५ तोला मात्रा से सेवन करे । यह शीत पित्त, यह पाक शीतकाल में विशेष रूपसे सेवन उदर्द, शीत, उत्कोठ, राजयक्ष्मा, रक्तपित्त, खांसी, | करना चाहिये। श्वास, अरुचि, बायगोला, उदावर्त, सूजन, कृमि, [४०८] आर्द्रकमातुलगावलेहः कंडू आदि रोगों का नाश करता और जठराग्नेि (वृ. नि. र. अरुचौ) तथा बल वीर्य आदि की वृद्धि और शरीर को | आर्द्रकस्वरसं प्रस्थं तदशं गुडं क्षिपेत् । पुष्ट करता है।
कुडवं बीजपूराम्लं गालयित्वा विचक्षणः ।। [४०७] आर्द्रकपाकः ( यो. चि. पाका.) सर्व मंदाग्निना पक्त्वा तत्रेमानि विनिक्षिपेत् । आर्द्रकं खंडशः कृत्वा प्रक्षिपेत्सुरभीघृते ॥ त्रिजातकं त्रिकटुकं त्रिफलायासमेव च ।।
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