Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
अकारादि-रस
[२५७] अग्निकुमारो रस: (२५) (यो. र. र. रा. सु., अजी.) पारदं च विषं गन्धं टङ्कणं समभागतः । मरीचादष्टभागाः स्युद्वौ द्वौ शङ्खवराटयोः ॥ पक्कजम्बीरजैगढिं रसैः सप्त विभावयेत् । गुमित देयो रसो ह्यग्निकुमारकः ॥ समीरणसमुद्भूतमजीणं च विचिकाम् । क्षणेन क्षपयत्येष कफरोगानिकृन्तनः ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मीठा तेलिया, सुहागे की खील, १-१ भाग । काली मिर्च का चूर्ण ८ भाग, शंख भस्म २ भाग और कौड़ी भस्म २ भाग । प्रथम पारेगन्धक की कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर सबको खरल करके पक्के जम्बीरी नींबू के रसकी ७ भावना दे । इसे २ रत्ती मात्रा में सेवन करने से वातज अजीर्ण और हैजा तथा कफज रोगोंका शीघ्र ही नाश होता है ।
[२५८] अग्निकुमारो रसः (२६) (र. यो. सा.) रसगन्धकरसकामृतकल्कःसव्योषभृङ्गरस मिलितः अग्निकुमारनामा जयति रसो रोगिणामिष्टः ॥
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, खपरिया और शुद्ध बच्छनाग इन सबको बराबर लेकर त्रिकुटे के क्वाथ और भांगरे के रससे क्रमसे भावना देना । यह अग्निकुमार रस सबसे उत्तम है और रोगियों के वास्ते हितकर है।
[२५९] अग्निकुमारो रसः (२७) (र. यो. सा.) योषं जातीफले द्वे च लवङ्गं च वराङ्गकम् । पत्रं शृङ्गी कणाटकं यमानी जीरकद्वयम् ॥ सैन्धवं च विडं हिङ्गु रसं गन्धं च रौप्यकम् ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ९१ )
लोहमश्रं समं सर्व जम्बीरीरसमर्दितम् ॥ अजीर्णशान्तये खादेच्चतुर्गुञ्जां वटीं नरः । अत्यग्निकारकश्चायं रसखाग्निकुमारकः ॥
ग्रहणञ्चैव वातपित्तकफोद्भवाम् । नाशयेदामदोषं च त्रिदोषजनितं च यत् ॥ शूलदोषं विसूचीं च भास्करस्तिमिरं यथा ।
त्रिकुटा, जायफल, जावित्री, लौंग, दालचीनी, तेजपात, काकड़ासिंगी, पीपल, शुद्ध सुहागा, अजवायन, दोनों जीरे, सेंधानमक, बिड नमक, भुनी हुई हींग, शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, चांदी भस्म, लोह भस्म और अभ्रक भस्म । सब समान भाग लेकर पारद गन्धक की कज्जली बनावे फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर जम्बीरी नींबूके रसकी भावना देकर ४-४ रत्ती की गोलियां बनावे | इसके सेवन करने से अजीर्ण का नाश होता है और अग्नि प्रदीप्त होती है। यह वातज, पित्तज और कफज, संग्रहणी, आम दोष, त्रिदोषज शूल और विसूचिका आदि इन सबको इस तरह नष्ट करता है जैसेकि सूर्य अन्धकारको ।
For Private And Personal Use Only
[२६०] अग्निकुमारो रसः (२८) (र. रा. सु. । अजीर्ण) समानौ गन्धकरसौ तदर्द्ध वत्सनाभकम् । रसस्य ताम्र भस्मोपि समं चूर्ण विमर्दयेत् ॥ इंसपादीरसेनाथ काचकूप्यां विनिक्षिपेत् । बालुकायन्त्रविधिना त्रियामं पाचयेद्भिषक् ॥ सार्द्धममृतं क्षिप्त्वा पुनः सञ्चूर्ण्य. मर्दयेत् । वह्नित्रिकटु सिन्धूत्थयुक्त नाईकवारिणा ॥ गुजामात्रो हि दातव्यो मन्दाग्नौ सान्निपातिके । धनुर्वातेऽप्यजीर्णो च शूले च क्षयकासयोः ॥ अयमग्निकुमाराख्यो रसः स्यात् ष्ठीइगुल्मनुत् ॥ शुद्ध पारा, ओर शुद्ध गन्धक २-२ भाग,