Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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अकारादि-रस
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(८९)
शूलं दुस्तरसन्निपातमनिलं मन्दाग्निपाण्डु क्षयाती सारग्रहणीज्वरान्द्रततरं स्वीयानुपानैर्जयेत् ॥
त्रिकटु त्रिफला लोहं सर्वमेव द्विभागिकम् । वानी निम्बुनीरेण दिवसत्रय भावितम् ॥ तथामृतरसेनैव मर्दितं चाम्लवेतसैः । चणकाकारमात्रेण दीयते रस उत्तमः ॥ अरोचकं वह्निविशेषमांद्यं,
गुल्मं प्रमेहं विनिहन्त्यवश्यम् । चुक्रेणयुक्तं खलु पक्तिशूलं, सूर्योदयावृद्धमतीव जातम् ॥ त्रिकटुकेन दत्तश्चेच्छ्वासकासामयापहः । रसो ग्निकुमारोऽयं सर्वरोगप्रणाशनः ॥
कपूर, लौंग, चव्य, चीता, अनारदाना, सोंठ और रेणुका, १-१ भाग तथा जवाखार, सज्जीखार, सुहागेकी खील, पांचो नमक, त्रिकुटा, त्रिफला, लोह भस्म, २-२ भाग । सबके चूर्णको एकत्र मिलाकर अजवायन के क्काथ, नींबूके रस, गिलोय के रस और अम्लवेत के रस या क्वाथ में पृथक् पृथक् ३-३ दिन घोट कर चने के बराबर गोलियां बनावे । इसके सेवन से अरुचि, अग्निमांद्य, गुल्म और प्रमेह का अवश्य नाश होता है । चुक्र (काञ्जीका एक भेद) के साथ सेवन करने से पक्तिशूल और सूर्यावर्तका, और त्रिकुटेके चूर्ण के साथ सेवन करनेसे खांसी और श्वास का नाश होता है । [२५३] अग्निकुमारो रसः (२१) (र. यो. सा.) कर्णौ तवली पृथक्समरसीभृतौ मराठाङ्किका नीरेणा लुलितौ विषं बलिदलं
विन्यस्य कूप्यांच तत् । रुद्धा द्वादशयाममेव सिकतायन्त्रे पचेद्वह्निनादीपारम्भवताऽवतार्थ शिशिरं भित्वा रसंचूर्णितम् शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और शुद्ध सीसा कर्षार्द्ध विषमूषणं विषसमं दत्त्वा विमर्धाखिलं ( भस्म), समान भाग लेकर कञ्जली करके एक दिन गुञ्जस्याऽग्निकुमारकस्य जठरलीहत्रणापस्मृती: हंसपादी के रस में घोटे, फिर उसका गोला बना
शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १४ - १ | तोला लेकर कज्जली करके हंसपादी (हंसराज ) के रस की भावना दे फिर ७|| माशे शुद्ध मीठा तेलिया मिलाकर आतशी शीशी में भरकर १२ पहर तक वालुकायन्त्र में क्रमसे मंद, मध्य और तीव्र अग्नि पर पकावे | फिर उतार कर शीतल होने पर उसे निकाल कर पीसे और उसमें | माशे शुद्ध मीठा तेलिया और ७|| माशे काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर खरल करके रक्खे | मात्रा:- १ रत्ती । इसे सेवन करनेसे उदर रोग, तिल्ली, ब्रण, अपस्मार, शूल, कष्टसाध्य सन्निपात, मंदाग्नि, वातजरोग, पाण्डु, क्षय, अतिसार, संग्रहणी और ज्वर आदि का शीघ्र ही नाश होता है । [२५४] अग्निकुमारो रसः (२२) (र. मं.) सूतगन्धकनागानां चूर्ण हंसाद्विवारिणा । दिनमेकं विमर्द्याथ गोलकं तस्य योजयेत् ॥ काचकूप्यां च संवेष्टय तां त्रिभिर्मृन्पटैर्दृढम् । मुखं संरुध्य संशोप्य स्थापयेत्सिकताह्वये ॥ सार्द्धं दिनं क्रमेणाग्निज्वालयेत्तदधस्ततः । स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य पडंशेनामृतं क्षिपेत् ॥ मरिचान्यर्द्धभागेन समस्तस्याथ मर्दयेत् । अग्निकुमाराख्यो रसो मात्राऽस्य रक्तिका ।। ताम्बूलीरस संयुक्तो हन्ति रोगानमृनयम् । वातरोगान् क्षयं श्वासं कसं पाण्डु कफोल्वणम् || अग्निमांद्यं सन्निपातं पथ्यं शाल्यादिकं लघु । जलयोगप्रयोगोऽपि शस्तस्तापप्रशान्तये ॥
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