Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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अकारादि-रस
(९५)
सन्निपातका नाश होता है। इन रोगोंके लिए यह । असाध्यं श्वयधुं हन्ति पाण्डुरोग चिरोद्भवम् । एक उत्तम रस है।
खयमग्निमुख नाम सर्पिः क्षौद्रेण मर्दयेत् ॥ [२६८] अग्निमुखताम्रम्
६० तोले मण्डूर (भस्म)को ८ गुने गोमूत्रमें (र. र. अ. पि.)
| पकावे और पाकके अन्तमें उसमें पीपल,पीपलामूल, गन्धकेनाक्षमात्रेण मृततुल्येन निम्मिता। चव्य, चीता, सोंठ, देवदारू, नागरमोथा, त्रिकुटा, कजली या तया लेप्यं ताम्रपत्रन्तुतत्समम् ॥ त्रिफला और वायबिडंग; इनमें से प्रत्यकका चूर्ण अर्जुनत्वग्रसैः सार्द्ध पक्कोदुम्बरपल्लवे।। ५---५ तोले मिलाये। इसे प्रतिदिन ११ तोलेकी आच्छाद्य पश्चलवणैश्चूर्णैश्वापि च मृण्मये॥ मात्रामें तक्रके साथ सेवन करनेसे असाध्य शोथ अन्धभूषागतं ध्मात तत्सिद्धं भक्षयेन्नरः। (सूजन) और पुराने पाण्डुका नाश होता है। इसे शाणकं रक्तिकावृद्ध्या मासमात्र प्रयोगतः॥ धी और शहदमें मिलाकर खाना चाहिये। व्यवअम्लपित्तं क्षयं शूलं जरपित्तं सुदारुणम्।।
हारिक मात्रा-३ माषा। सप्तरात्रप्रयोगेण शरीरःनिर्मलं भवेत ।।
[२७०] अग्निमुखो रसः (१) १-१। तोला शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक
(र.सा.सं., शूले. । र.का.धे.,वृ. यो. त.। त. ८४) की कजली बनाकर उसे अर्जुनकी छालके क्वाथसे
रसवलिगगनार्क वेतसाम्लं विषं स्यात् खरल करे इस कजलीसे २॥ तोले शुद्ध तांबे के पत्रों ___ सवरमिह पृथक्स्याद्भावयेद्धस्रमेतैः । पर लेप करदें। तदनन्तर उन्हें गूलरके पत्तोमें लपेट | कनकभुजगवल्लीकण्टकारीजयाद्भिः कर और पत्थरके चूनेके चूर्णके बीचमें रखकर मट्टीके | कमलसलिलवासामुष्टिरास्वाम्बुनीरैः॥ अन्धमूषामें पकावे । इसे १ रत्तीकी मात्रासे आरंभ | अरुणसदृशशाकमातुलुङ्गोऽथ योज्यः । करके धीरेधीरे मात्रा बढाते हुवे १ मास तक सेवन । पटुगण रस तुल्यो भावयेदाकाद्भिः। करें। इसकी अधिकसे अधिक मात्रा १ शाण (४ | दहनवदनसंस्थो वल्लमात्रो निहन्ति । माशा) की है। (वर्तमान कालमें पूर्ण मात्रा ४ | प्रवलपवनशूलं तद्विकाराश्वसर्वान् ॥ रत्ती समझनी चाहिए) इसको एक २ रत्ती रोज ___ शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म, ताम्रबढ़ाता हुआ १ शाण तक खावे, इससे अम्लपित्त, भस्म, अमलवेत, शुद्ध वच्छनाग और त्रिफला यह क्षय, शूल, और दारुण पक्ति-शूल सात रोजमें दूर |
सब औषधियां समान भाग लेकर प्रथम पारा गन्धहोजाते हैं, और शरीर दोष रहित होजाता है। ककी कजली करके उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण [२६९] अग्निमुख-मण्डूरम् मिलाकर धतूरेके पत्ते, नागरवेलके पान,कटेली, जैत, (भै. र. । शोथे)
कमलका फूल, अडूसा, कुचला, रास्ना सुगंधबाला पलद्वादशमण्डूरं गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् । लाल शाक, और बिजोरा नींबू , इनमेंसे प्रत्येक रस पञ्चकोलं देवदारु मुस्तं व्योषं फलत्रयम् ॥ या क्वाथकी १-१ भावना देकर उसमें सबके बराविडम पलमात्रन्तु तक्रेण चूर्णितं क्षिपेत् । बर पांचो नमक मिलाकर पुनः अदरक के रसमें पाययेदक्षमात्रन्तु तक्रेण सह बुद्धिमान् ॥ घोटें। दो दो रत्ती की गोलियां बना लेवे । इन
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