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श्री अरविंद ने कहा है, जब तक भीतर के प्रकाश को न देखा था तब तक सोचता था, बाहर का प्रकाश ही प्रकाश है। जब भीतर के प्रकाश को देखा तो जिसे अब तक बाहर का प्रकाश माना था, वह अंधकार जैसा दिखाई पड़ने लगा। और जब असली जीवन को देखा तो जिसे जीवन समझा था वह मौत मालूम होने लगी। और जब असली अमृत का स्वाद चखा तो जिसे अब तक अमृत समझा था वह विष हो गया, जहर हो गया।
ज्ञानी मूल को देख लेता है। लीला की गहराई में छिपे लीलाधर को पकड़ लेता। नृत्य के भीतर नाचते नटराज को पकड़ लेता। बात खतम हो गई। जब नटराज से संबंध जुड़ गया, नृत्य दिखता भी, दिखता भी नहीं।
स्फुरतोउनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यत:।
फिर यह खेल चलता रहता है बाहर, लेकिन ज्ञानी में इसकी तरफ कोई लगाव, कोई रुचि, कोई दौड़ नहीं रह जाती। और जब ऐसी दौड ही न रह जाये तो फिर कहां बंध, कहां मोक्ष! यह बाहर का खेल ही बांधता है। जब यह बांध लेता है तो फिर मुक्त होने की कोशिश करनी पड़ती है। और जिसको भीतर का रहस्यधर दिखाई पड़ गया उसे तो बाहर का खेल बांधता ही नहीं, इसलिए मोक्ष का भी कोई कारण नहीं।
दृष्टि तद्रिल, श्रवण सोये अश्रु पकिल, नयन खोये मन कहां है? क्या हुआ है?
लग रहे कुछ भग्न-से हो भ्रमशिला संलग्न से हो कर रहे हो ध्यान किसका? क्यों स्वयं में मग्न-से हो? लग रहे हो समय-बाधित आप अपने से पराजित हाय यह कैसी विवशता! किस बुरे ग्रह ने छुआ है?
क्यों हुए उद्विग्न इतने? पथ-प्रताडित विम्न जितने सोचकर देखो तनिक तो श्वास हैं निर्विधन कितने क्या चरण कोई कहीं हैं