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कि नहीं? यह रामतीर्थ की मौजूदगी वेद की मौजूदगी थी। यह वाणी वेद की वाणी थी। इन आंखों में सागर लहरा रहा था। यह रामतीर्थ की मस्ती काफी थी प्रमाण।
लेकिन यह बात काशी में नहीं चलेगी। जब रामतीर्थ वापस लौटे तो वे काशी गये। और काशी में बड़ी उन्हें हैरानी हुई क्योंकि जब वे काशी में है
और उसने कहा, रुकिये! संस्कृत आती है गुर रामतीर्थ को संस्कृत आती नहीं थी, वे तो फारसी के विदवान थे। लाहौर में पढ़े, लाहौर के पास ही पैदा हुए, उर्दू जानते थे, फारसी जानते थे। और गणित के प्रोफेसर थे। संस्कृत से तो कुछ लेना ही देना नहीं था। चौंककर रामतीर्थ रह गये। और उस आदमी ने कहा, महाराज, पहले संस्कृत तो पढो! वेद का कुछ पता नहीं है और ब्रह्मज्ञान बखान रहे हो! यह ब्रह्मज्ञान किसी काम का नहीं है। यह सब बातचीत है, जब तक शास्त्र का समर्थन नहीं है।
रामतीर्थ दिखायी नहीं पड़ते! रामतीर्थ सामने बैठे हैं। इससे ज्यादा मस्त आदमी इन सौ वर्षों में भारत में दूसरा नहीं हुआ। इससे ज्यादा सूफियाना, इससे ज्यादा मौलिक, इससे ज्यादा परमात्मा के निकट मुश्किल से कोई आदमी होता है। मगर नहीं, पंडितों को यह बात न दिखी। सभा उखड़ गयी, लोग उठ गये, लोगों ने कहा कि छोड़ो, जाने दो, क्या रखा है! संस्कृत तक तो आती नहीं! एक पर्दा पड़ गया आंख पर।
कोई प्रयोजन नहीं है संस्कृत के जानने से। मुसलमान होने के लिए अरबी जानना आवश्यक नहीं है। न हिंदुत्व के सार को समझने के लिए संस्कृत जानना जरूरी है। और न यहूदी होने के लिए हिलू जानना जरूरी है। सत्य को जानना जरूरी है। और सत्य तो भीतर पड़ा है। तो सिर्फ जागना जरूरी है। जो भीतर पड़ा है उसे आंख खोलकर देख लेना आवश्यक है, बस।
'कहां विदया, कहां अविदया, कहां मैं है, अथवा कहां यह, कहां मेरा, कहां बंध है, और कहां मोक्ष?' बंधन और मोक्ष भी दवंदव के ही जगत के हिस्से हैं।
स्वरूपस्य क्व रूपिता?
यहां तो कोई बंधन, कोई मोक्ष, कोई रूप नहीं बनता, कोई आकृति नहीं बनती। मुक्तपुरुष इतना भी नहीं कहेगा कि मैं मुक्त हूं। क्योंकि न तो मैं बचा, न मुक्ति बची।
ऐसा ही समझो कि एक आदमी जेलखाने से छूटता है। बीस साल कारागृह में रहा, हथकड़ियों में जकड़ा रहा। छूटा आज, तो छूटते ही से मुक्ति लगती है। तुम्हें तो मुक्ति नहीं लगती तुम सड़क पर चले जा रहे हो, उसी सड़क पर जहां वह कारागृह से छूटता है एक आदमी-जेल के दरवाजे पर लाकर जेलर उसे विदा करता है और कहता है, धन्यभागी कि तुम जीवित निकल आए, बीस साल लंबा वक्त था, प्रभु तुम्हारी रक्षा करे, दुबारा मत आ जाना। वह आदमी चौंककर अपने को खड़ा खुली हवा में देखता है, सूरज की रोशनी, पक्षी उड़ते हुए, लोग जाते हुए बीस साल कारागृह में बंद था, अंधेरी कोठरियां, सींकचे, सिर्फ संतरियो के पैरों के जूतों की आवाज के सिवाय कोई और संगीत नहीं सुना, आज अचानक फिर से बीस साल के बाद जीवन का रूप-रंग, यह सतरंगा जीवन, ये फूल, ये पक्षी, चौंककर खड़ा रह जाता है। परममुक्ति का अनुभव होता है। लेकिन तुम भी वहीं जा रहे रास्ते