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धुंघरू पायल की रुनझुन में कुमकुम अबीर के मेघ उड़े खिलता पलाश फागुन गाओ ऐसे में मन मारे न रहो कुछ रस में इबो, उतर आओ आओ, शामिल हो जाओ मौसम के पूजन - अर्चन में तुम भी आंचल गीला कर लो
अब रूठे रहो न फागुन में यह जो अष्टावक्र और जनक का संवाद मैंने तुमसे कहना चाहा है, इसी आशा में कि तुम भी थोड़े इस फागुन के रस में डूब सको। एक बूंद भी तुम्हारे हाथ लग जाए तो सागर दूर नहीं। एक किरण भी हाथ लग जाए तो सूरज दूर नहीं।
तुम भी आंचल गीला कर लो अब रूठे रहो न फागुन में चर्गो पर थाप पडी गहरी, सब फड़क उठे ढप-ढप ढोलक खड़के मृदंग झमकी झांड्राएं पग थिरक उठे नैना अपलक लो होड़ लगी देखो -देखो घुघरू पायल की रुनझुन में कुमकुम अबीर के मेघ उडे खिलता पलाश फागुन गाओ ऐसे में मन मारे न रहो कुछ रस में इबो, उतर आओ आओ, शामिल हो जाओ मौसम के पूजन- अर्चन में तुम भी आंचल गीला कर लो
अब रूठे रहो न फागुन में यह जो महा अमृत का संदेश है र इसे थोड़ा चखो। चखते ही अर्थ खुलेगा। तुम पूछते हो-सिद्ध कौन? सिद्ध हुए बिना पता न चलेगा| और सिद्ध तुम इसी क्षण हो सकते हो। क्योंकि सिद्ध होने के लिए न किसी साधन की जरूरत है, न किसी साध्य की। सिद्ध होना तुम्हारा स्वभाव है। तुम स्वरूप से सिद्ध हो। तुम्हारा मोक्ष तुम्हारे भीतर है। तुम सम्राट हो। न मालूम किस अपशगुन में तुमने अपने