Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 438
________________ विजय-पराजय भी सीमित है यश-अपयश विधि के हाथों में जीवन-मरण सभी निश्चित है वही बनाता वही मिटाता वही बढ़ाता वही घटाता रीती रेखा में गति भरता बड़ा कुशल है सृष्टि चितेरा मंजिल सिर्फ उसे ही मिलती जो तिर जाता अगम अंधेरा न घर मेरा न घर तेरा दुनिया तो बस रैन बसेरा यहां कुछ न अपना, न कुछ औरों का। सब उसका। सब एक का। यह मैं -तू का भेद कल्पित आरोपित। जहां मैं और तू का भेद गिर जाता और उसका अनुभव होता जो मैं में भी मौजूद है, तू में भी मौजूद है, फिर न कुछ प्रीति है, न कुछ विरति है, फिर न ही कोई जीव है, न कोई ब्रह्म है। क्योंकि जीव और ब्रह्म का संबंध भी दो का संबंध है। और जब तक दो है तब तक अज्ञान है। तुम ऐसा समझ लेना, वैत यानी अंधकार, अद्वैत यानी प्रकाश। 'सर्वदा स्वस्थ, कूटस्थ और अखंड रूप मुझको कहां प्रवृत्ति है और कहां निवृत्ति है; कहां मुक्ति है, कहां बंध है?' क्व प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा क्व मुक्ति: क्व च बंधनम्। कूटस्थनिर्विभागस्य स्वस्थस्य मम सर्वदा।। मैं सदा स्वयं में स्थित, कूटस्थ, मैं सदा निर्विभागस्य -कोई विभाजन मैं नहीं, कोई खंड़ मैं नहीं-न प्रवृत्ति है कोई, न निवृत्ति है; न किसी से लगांव, न दुराव, गये सब दवंदव के जाल। इतना भी कि न कुछ बंधन, न कुछ मुक्ति-तभी मुक्ति। इसे तुम समझना। यह अपूर्व घोषणा है। इसका अर्थ है कि अगर तुम ठीक से समझो तो गलती कभी हुई ही नहीं है। गलती हो ही नहीं सकती। गलती होने का उपाय ही नहीं है। अगर तुम ठीक से समझो तो पाप कभी हुआ नहीं पाप हो ही नहीं सकता। पाप होने का उपाय नहीं है। और न पुण्य हो सकता है। और न पुण्य कभी किया गया है। पाप हो कि पुण्य, भूल हो कि ठीक, दोनों में कर्ताभाव है। और तुमने कभी कुछ नहीं किया है। तुम सदा एकरस, अकर्ता, साक्षी हो। सिर्फ देखनेवाले हो। तुमने देखा कि चोरी हो रही है और कभी तुमने देखा कि दान दे रहे हो मगर दोनों हालत में तुम द्रष्टा हो। न तुमने चोरी की है, न तुमने दान दिया है। दान भी हुआ है, चोरी भी हुई है, सच! पर तुमने न दान दिया है, न चोरी की है। इसको खयाल में ले लेना। साधारणत: धार्मिक गुरु लोगों को समझाते हैं चोरी छोडो, दान करो।

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