Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 437
________________ हो, अंतिम घड़ी में परमात्मा और आत्मा का निषेध हो। नहीं, जनक पहले कहते हैं__ क्व जीव: क्व च तद्ब्रह्म सर्वदा विमलस्य मे।। मझ निर्मल हो गये में, मझ शद्ध-शात हो गये में, मझ शन्य हो गये में न कोई आत्मा है, न परमात्मा। इसके बाद अंतिम चरण में, आखिरी सूत्र में जाकर वह कहेंगे कि अब कोई शिष्य नहीं, कोई गुरु नहीं। जिसके जीवन में परमात्मा और आत्मा का भेद गिर गया, उसी के जीवन में गुरु-शिष्य का भेद गिरता है, उसके पहले नहीं। अहंकार तो बहुत दफे चाहता है कि गुरु-शिष्य का भेद जल्दी गिरा दें। अहंकार तो पहले बनाना ही नहीं चाहता भेद। अहंकार तो कहता है, शिष्य बनने की जरूरत क्या है? असल में अहंकार तो गुरु बनना चाहता है, शिष्य बनना ही नहीं चाहता। अगर शिष्य भी बनता है तो इसी आशा में बनता है कि चलो, शायद यही रास्ता है गुरु बनने का। फिर जल्दी होती है कि किस तरह यह बात खतम हो जाए, क्योंकि यह पीड़ा देती है। लेकिन यह बात तब खतम होती है जब तुम्हारे जीवन में वह परम घड़ी आ जाती है जहां परमात्मा और आत्मा का भेद भी गिर जाता है। उसके बाद ही। गुरु और शिष्य के संबंध से यात्रा शुरू होती है सत्य की और गुरु-शिष्य के संबंध के समाप्त होने पर यात्रा भी समाप्त होती है सत्य की। जो प्रारंभ है, वही अंत है। जहां स्रोत है, वहीं गंतव्य है। कहां प्रीति, कहां विरति?' अपना कुछ है ही नहीं, किसको अपना कहें, किसको पराया कहें? किसको पकड़े, किसे छोड़े? किसका भोग करें, किसका त्याग करें? अपने से अतिरिक्त यहां कुछ है ही नहीं। न घर मेरा न घर तेरा दुनिया तो बस रैन बसेरा कभी एक सी दशा न रहती पुरवा बनकर पछुवा बहती ऋतुएं आती जाती रहती देह मेह शीतातप सहती कहीं धूप तो कहीं छाह है श्वास पथिक की कठिन राह है मंजिल सिर्फ उसे ही मिलती जो तिर जाता अगम अंधेरा न घर मेरा न घर तेरा दुनिया तो बस रैन बसेरा हानि-लाभ सुख-दुख परिमित है

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