Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 429
________________ ये बातें घट सकती हैं। जब एक ही बचा तो कौन जाने, किसको जाने, कैसे जाने, क्या जाने । ज्ञान की अंतिम घडी में ज्ञान भी समाप्त हो जाता है, यह इस सूत्र का मूल है। इसलिए तो सुकरात ने अंतिम क्षणों में कहा, मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। उपनिषद कहते हैं जो कहे मैं जानता हूं, जान लेना कि नहीं जानता। और जो कहे कि मैं नहीं जानता हूं पकड़ लेना उसका पीछा, वहां कुछ है। उसे कुछ मिला है। लाओत्सु ने कहा है, सत्य को मैं न कहूंगा, क्योंकि कहा कि चूक हो जाएगी। सत्य कहते ही झूठ हो जाता है। क्योंकि कहने में दावा हो जाता है, क वाला आ जाता है। तो मैं सत्य को न कहूंगा मैं चुप ही रहूंगा। मैं मौन ही रहूंगा। तुम मेरे मौन से ही समझ लो तो ठीक। परम सदगुरु हुआ रिंझाई। उससे एक सम्राट ने पूछा है कि मुझे कुछ मार्ग बता दें। कैसे पहुंचूं सत्य तक? तो रिझाई चुप बैठा रहा, देखता रहा, देखता रहा सम्राट को सम्राट जरा बेचैन हो गया । उसने कहा, महानुभाव, क्या आपने सुना नहीं मैंने क्या पूछा रम मैंने पूछा कि सत्य को पाने का कोई मार्ग बता दें। फिर भी रिझाई चुप रहा । सम्राट ने अपने वजीर से कहा कि यह सज्जन सुनते हैं कि नहीं ? कान वगैरह खराब तो नहीं हैं। वजीर ने कहा कि नहीं, कोई कान खराब नहीं है, वह बराबर सुन रहे हैं, उत्तर भी दे रहे हैं। सम्राट ने कहा, यह कैसा उत्तर हुआ? रिझाई ने कहा कि तुमने बात ही ऐसी पूछी है कि उसका उत्तर चुप रहकर ही हो सकता है। सम्राट ने कहा, मैं न समझंगा, यह बात मैं न समझंगा। चुप रही सूचना मेरे पकड़ में न आएगी, तुम कुछ बोलो। तो रिझाईने, रेत पर बैठा था, सामने ही लकड़ी उठाकर लिख दिया, ध्यान। सम्राट ने कहा कि कुछ और थोड़ा विस्तार करो। ध्यान, बस इतना कह दिया काम हो जाएगा? तो रिंझाई ने दुबारा लिख दिया और बड़े अक्षरों में- ध्यान। सम्राट ने कहा कि आपका दिमाग ठीक है? मैं पूछता हूं, थोड़ा विस्तार करो। तो रिंझाई ने बहुत बड़े -बड़े अक्षरों में लिख दिया - ध्यान। और जब सम्राट ने कहा कि नहीं, मेरी समझ में इतने से न आएगा । तो रिझाई ने कहा- तुम क्या मेरी बदनामी करवाकर रहोगे? अब मैं ज्यादा बोला तो फंस जाऊंगा। इतना ही काफी हो गया फंसने के लिए। चुप था, तब तक सत्य के बिलकुल निकट था, जो कह रहा था चुप से, वह बिलकुल सत्य था। फिर जब ध्यान लिखा तो कुछ तो असत्य हो गया। जब और बड़ा लिखा तो और असत्य हो गया। जब और बड़े में लिखना पड़ा तो और असत्य हो गया। अब अगर मैं बोला, और विस्तार किया, तो मुश्किल हो जाएगी। बुद्ध बोले हैं, अष्टावक्र बोले हैं, लेकिन ध्यान रखना- उनके बोलने की सारी चेष्टा ऐसे ही है जैसे पैर में एक काटा लगा हो तो दूसरे काटे से निकाल देना। दूसरे काटे का कोई मूल्य नहीं है, बस पहला काटा निकल गया कि दूसरा भी पहले ही जैसा व्यर्थ है। दोनों को फेंक देना है। ऐसा नहीं है कि दूसरे को संभालकर रख लेंगे छाती में, मंदिर बनाएंगे दूसरे के लिए, पूजा करेंगे कि यह का बडा अदभुत है, इसने कांटे से बचाया। दूसरा भी काटा है। शब्द से शब्द को निकाल लेना है, ताकि पीछे निःशब्द रह जाए। जनक कहते हैं, अब न कोई जाननेवाला, न कुछ जाना जानेवाला, न कोई प्रमाण, न कोई

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