Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 391
________________ हो गया। पूरा अष्टावक्र का सारसूत्र इतना है कि यह घटना बड़ी-सहज, स्वाभाविक, अति साधारण है। परमात्मा से साधारण इस संसार में और कुछ भी नहीं है। क्योंकि परमात्मा सारे अस्तित्व की श्वास है। और क्या इससे साधारण होगा? झरने में झरना है, वक्ष में वक्ष है, पक्षी में पक्षी है मनुष्य में मनुष्य है-स्त्री में स्त्री, पुरुष में पुरुष, बच्चे में बच्चा, के में बूढ़ा परमात्मा तो सब पर फैला हुआ स्वाद है। पापी में परमात्मा पापी है और पुण्यात्मा में परमात्मा पुण्यात्मा है। नर्क में परमात्मा नारकीय और स्वर्ग में स्वर्गीय है। और क्या साधारण बात होगी? छद्रतम में वही विराजमान है और विराटतम में वही विराजमान है। अणु से अणु में भी वही और अनंत से अनंत में भी वही परमात्मा से ज्यादा साधारण और क्या बात होगी, क्योंकि परमात्मा सार्वभौम है। निर्विशेष है। यही तो अष्टावक्र ने कल कहा-निर्विशेष, कोई विशेषण नहीं है। कोई विशिष्टता नहीं है। लेकिन हम परमात्मा को ऊपर रखना चाहते हैं सबसे ऊंची चीज। उसी दुनिया की श्रृंखला में जहां धन, पद, प्रतिष्ठा, इन सबके बाद, सबके ऊपर परमात्मा है। इस तरह हम सोचते हैं हम परमात्मा का बड़ा आदर कर रहे हैं। हम परमात्मा के साथ धोखा कर रहे हैं। महाघटना मत कहो! यह घटना बड़ी साधारण है। और यह घटना ऐसी है कि घटने वाली नहीं है, घट चुकी है। तुम चाहे जागो और चाहे तुम न जागो, परमात्मा तुम्हारे भीतर विराजमान है। तुम चाहे मानो, चाहे न मानो, अंगीकार करो, न अंगीकार करो, परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है। तुम्हारी मौजदगी उसकी ही मौजदगी की छाया है। परछाई। वही है, तम तो केवल परछाई हो। जैसे आदमी धूप में चलता है तो छाया बनती। ऐसे परमात्मा के चलने से अनेक-अनेक रूप बनते। रूप तो परछाईं है। अरूप की परछाईं है रूप। निराकार की परछाईं है आकार। शून्य की परछाई है शब्द। शांति की परछाई है संगीत। मूल दिखायी नहीं पड़ रहा है, तुम छाया में उलझ गये हो। जरा जागकर, चौंककर, हिलकर देखो, तुम पाओगे तुम मूल हो। तो महाघटना तो कहो मत। महाघटना कहने में ही तुमने तरकीब बना ली फिर तैयारी करनी पड़ेगी, महाघटना कोई ऐसे थोड़े ही घट जाएगी। यम, नियम, आसन, प्राणायाम ., प्रत्याहार और हजार-हजार तरह के व्यायाम, फिर धारणा, ध्यान, फिर समाधि, ऐसा अष्टाग योग साधते -साधते जनम -जनम बीतेंगे। यही तो फर्क है पतंजलि और अष्टावक्र का। पतंजलि में कम है-साधो, धीरे - धीरे। इसलिए तो पतंजलि का खूब प्रभाव पड़ा। सभी को बात जंची। अष्टावक्र का कोई बहुत प्रभाव नहीं पडा। बात इतनी सरल थी कि अहकारियों को नहीं जंच सकती थी। समझना। अष्टावक्र की बात अहंकारी को नहीं जंच सकती। क्योंकि अहंकारी कहता है, सरल है! तो सरल में तो उसका रस ही नहीं होता। गौरीशंकर पर चढ़ने में उसको रस होता है। अब कोई पूना की टेकरी पर चढ़ने में क्या रस है! तुम पूना की टेकरी पर पढ़ जाओ और झंडा लगा आओ और कहो अखबार वालों से कि छापो मेरी खबर, पूना की टेकरी पर मैं चढ़ गया और झंडा भी मैं लगा आया, हिलेरी चढ़ गया गौरीशंकर पर तो क्यों खबर छापी, मैंने भी वही किया! तो लोग हंसेंगे, लोग कहेंगे, इस टेकरी पर कोई भी चढ़ जाता, टेकरी पर चढ़ने में कुछ रखा नहीं! गौरीशंकर पर चढ़ी तो कुछ बात ज

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