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तुम्हारा सम्मान किया है, उसकी मौज। उसे जो ठीक लगा उसने किया। जो उसके पास था, उसने दिया। तुम अपमान और सम्मान दोनों को एक ही धन्यवाद के भाव से स्वीकार कर लेना, दोनों का आभार प्रगट कर देना और आंख मूंदकर भीतर इबकी लगा लेना।
आखिरी प्रश्न :
दुख ही दुख है, सुख के स्वप्न में भी दर्शन नहीं, फिर भी जाग नहीं आती है, जागरण का कोई अनुभव नहीं होता है।
दूख ही दुख है, ऐसा तुम्हारा अनुभव है, या तुमने किसी की बात सुनकर पकड़ ली? जरा भी सुख नहीं है, ऐसा तुम्हारा अनुभव है, या तुमने बुद्धपुरुषों के वचन कंठस्थ कर लिये? मुझे लगता है, तुमने बुद्धपुरुषों के वचन कंठस्थ कर लिये हैं। क्योंकि तुम्हारा ही अनुभव हो तो जागरण आना ही चाहिए। अनिवार्य है। अगर पैर में काटा गड़ा है, तो पीड़ा होगी ही। अगर दुख है ऐसा तुम्हारा अनुभव है, तो जागरण आएगा ही। दुख जगाता है, दुख मांजता है, निखारता है। दुख का मूल्य ही यही है।
लोग मुझसे पूछते हैं, संसार में परमात्मा ने इतना दुख क्यों दिया है? मैं उनसे कहता हूं, थोड़ा सोचो, इतना दुख है फिर भी तुम नहीं जागते, अगर दुख न होता तब तो फिर कोई आशा ही नहीं थी। इतने दुख के बावजूद नहीं जागते!
दुख जगाने का उपाय है। इतनी पीड़ा है फिर भी तुम सोए चले जाते हो। सुख की आशा नहीं टूटती। ऐसा लगता है आज नहीं है सुख, कल होगा। अभी नहीं हुआ अभी होगा। आज तक हारे, सदा थोडे ही हारते रहेंगे। और मन तो कहे चला जाता है, और, थोड़ा और रुक जाओ, थोड़ा और देख लो, कौन जाने करीब ही आती हो खदान सुख की। अब तक खोदा और कहीं दो -चार कुदाली और चलाने की देर थी कि पहुंच जाते खदान पर थोड़ा और खोद लो। और, और, मन कहे चला जाता है। और है मंत्र मन का।
भौंहों पर खिंचने दो रतनारे बान अभी और अभी और।
सुर- धन को सरसा ओ आंचल के देश सपनों को बरसा ओ नभ के परिवेश संयम से मत बांधो दर्शन के प्राण