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यह बात जरूर सच है कि परमात्मा को जानने से आचरण सुधर जाता है, लेकिन आचरण सुधरने से परमात्मा के मिलने का कोई संबंध नहीं है। यह बात जरूर सच है कि अगर कोई व्यक्ति संगीत में रसपूर्ण हो जाए, तो उसके जीवन में क्रांति घटित होती है, सब बदलता है, क्योंकि संगीत इतनी बड़ी महाक्रांति है। अगर तुम संगीत को सुनने-समझने में समर्थ हो गये, तो तुम्हारे जीवन में रूपांतरण होने शुरू होंगे। तुम्हारा क्रोध तिरोहित होने लगेगा। क्योंकि जो संगीत में डूबा, अब क्रोध में न डूब सकेगा, क्योंकि क्रोध तो विसंगीत है। जो संगीत में डूबा, अब धन में इसे बहुत रस न आएगा। क्योंकि धन तो शोरगुल की दुनिया की चीज है। जो संगीत में डूबा, अब इसे शांति में रस आएगा। क्योंकि संगीत करता ही क्या है? जब तुम संगीत को सुनते हो तब तुम्हारी विचार की तरंगें सो जाती हैं और भीतर एक शात आकाश - जरा भी मेघाच्छन्न नहीं, सब मेघ, सब बादल चले गये - एक शून्य नीलाकाश फैल जाता है।
जब तुम्हें शांति का रस संगीत से मिलेगा, तो तुम धीरे- धीरे पाओगे कि शांति और संगीत में एक अनिवार्य संबंध है। जब तुम शात हो जाओगे, तभी संगीत बहने लगेगा। फिर तो जरूरत भी नहीं है कि किसी वीणावादक को खोजो। जहां शात हुए, वहीं वीणा भीतर की बजने लगेगी। सच तो यही है कि बाहर की वीणा में असली संगीत नहीं है, बाहर की वीणा सुनते-सुनते तुम्हें भीतर की वीणा सुनायी पड़ जाती है, संगीत वहीं है। बाहर की वीणा तो केवल निमित्तमात्र है।
'क्या बिना किसी प्रकार की
फिर मन वकालत करता है, न होगा प्रत्यक्ष, तो कोई अप्रत्यक्ष तैयारी होगी। सीधी-सीधी ऊपर से न दिखायी पड़ती होगी तो छिपी-छिपी कोई तैयारी होगी। मगर कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तैयारी के बिना क्या तत्काल - संबोधि घटना संभव है? वही तो अष्टावक्र का पूरा का पूरा उपदेश है। संभव नहीं है, बस वही केवल संभव है। और किसी तरह संबोधि घटती ही नहीं। जो हजारों तरह के उपाय करने के बाद भी किसी दिन संबोधि को पहुंचते हैं, उस दिन पाते हैं कि यह तो कभी भी घट सकती थी अगर सुन लिया होता। सुना नहीं, तो नहीं घटी।
मैंने तुम्हें बार-बार कहा है कि बुद्ध कहते हैं, एक तो ऐसा घोडा होता है कि मारो - मारो तो मुश्किल से चलता है। दूसरा ऐसा घोड़ा होता है कि कोड़ा फटकासे मारने की जरूरत नहीं पड़ती- और चलता है। और तीसरा ऐसा घोड़ा होता है कि कोड़ा फटकारने की भी जरूरत नहीं होती, सिर्फ कोड़े की मौजूदगी हो तो चलता है। और चौथा ऐसा भी घोड़ा होता है कि मौजूदगी भी उसके लिए अपमानजनक हो जाएगी, कोड़े की छाया काफी है। संभावना काफी है।
मैं एक पागल के संबंध में पढ रहा था। वह आदमी एक लेखक था। बड़ा लेखक था और पागल हो गया। पागलखाने में बंद रहा, कोई तीन साल इलाज चला, लेकिन कोई आसार न दिखायी पड़ते थे। तीन साल के बाद अचानक उसने कहा कि कागज-कलम लाओ, मेरे मन में लिखने का भाव हो रहा है। तो उसके चिकित्सक बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने सोचा कि कुछ होश इसे वापिस आ रहा है। यह लौट रहा है। अब इसको अगर इतना भी खयाल आ गया कि मैं लेखक हूं और मुझे कुछ लिखना