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बिजलियों ने वक्ष मेरा छू लिया है और तुमको मुस्कुराने की लगी है ! कर्म की पूजा अधूरी ही पड़ी है और तुमको रस बहाने की लगी है !
द्वार की सांकल बजाए जा रहा दुख
और तुमको मधु पिलाने की लगी है !
लेकिन, मैं तुमसे कहना चाहता हूं, तुम्हारे दुख कल्पित हैं। तुम्हारे दुख तुम्हारे ही मन - निर्मित हैं। न- मालूम कितने हजारों लोगों के दुख-सुख मैं सुनता हूं, और मैं चकित होता हूं कि लोग कितने गहरे न सो रहे होंगे! उन्हें यह भी नहीं दिखायी पड़ता कि दुख उनका बिलकुल कल्पित है। बिलकुल झूठा है। अब तक मैंने ऐसा आदमी नहीं पाया जिसका कोई दुख वास्तविक हो । जो सच में दया का पात्र हो। हंसी के पात्र हैं, दया के पात्र नहीं हैं। यद्यपि मैं भी हंसता नहीं, क्योंकि तुम्हें और चोट लगेगी। मैं गंभीरता से तुम्हारी बातें सुनता हूँ तुम्हारे दुख में ऐसा दिखाता हूं कि मैं भी सम्मिलित हूं सहानुभूति दिखाता हूं तुम्हारी पीठ थपथपाता हूं क्योंकि तुम अभी न समझ सकोगे। अभी तुम दुख में ऐसे डूबे हो कि तुम्हें लग रहा है कि यही सचाई है। तुम्हारे सब दुख झूठे हैं।
इसलिए बुद्धपुरुषों पर तुम नाराज हुए तो कुछ आश्चर्य नहीं है स्वाभाविक है। क्योंकि वे एक ऐसी जगत की बात कर रहे हैं जिससे तुम्हारी कोई भी पहचान नहीं
दिवस उनींदे उन्मन बीते
रात जागरण के प्रण जीते
क्यों आगमन गमन बन जाता
क्यों संहार सृजन बन जाता मरण जनम या जनम मरण है कहीं न कोई निराकरण है
ज्ञान गुमान शेष हो जाते आदि अंत को सीते -सीते
पल में धूप बनी क्यों छाया
माया रूप रूपरत माया
जल मैं उपल उपल में जल है
जीव जीव में जगत समाया
सरि में लहर लहर में धारा धार - धार में जीवन सारा
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