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बाहर सो सिद्ध की यह दशा है। अपना अपने में बो अब कोई दूसरा तो है नहीं। अपना
अपने में बो खुद ही बीज है, खुद ही खेत है, खुद ही किसान है, खुद ही फसल है, खुद ही काटेगा। बस अपना ही अपना बचा।
अपना अपने में बो अंत: जग
बाहर सो और जो भीतर है, वही अब बाहर है। जो बाहर है, वही भीतर है। बाहर भीतर भी गया। अभंग। अब न कुछ बाहर है, न भीतर है।
नियति निरपेक्ष है भ्रम है विरोधाभास तम-विभा द्वय से मुक्त है महाकाश
नियति निरपेक्ष है तो जब तक सापेक्ष हो -ठंडा और गरम, सुख और दुख ये सब सापेक्ष बातें हैं। जो तुम्हें सुख है, दूसरे को दुख हो सकता है।
ऐसा एक बार हुआ कि मैं एक राजमहल में मेहमान हुआ मेरे साथ एक मित्र भी वहां मेहमान हुए मित्र फक्कड़ फकीर हैं। और राजमहल में होने का उन्हें कभी मौका आया नहीं था। जिस राजा के हम मेहमान थे, उसने जो श्रेष्ठतम उनके घर में सुविधा थी वह हमारे लिए जुटायी थी। सुंदरतम जो कक्ष था, उसमें हमें ठहराया था। लेकिन रात मैंने देखा कि मित्र करवट बदलते हैं, उन्हें नींद नहीं आती। मैंने उनसे पूछा कि बात क्या है? तुम इतनी करवट बदलते हो! तो उन्होंने कहा कि मुझे नींद नहीं आती, अगर आप आज्ञा दें तो मैं फर्श पर सो जाऊं। तो मैंने कहा, तुम्हें बिस्तर पर कोई तकलीफ है? बोले, बहुत तकलीफ हो रही है, क्योंकि यह इतना सुखद है, इतना गुदगुदा और इतना मुलायम ऐसे बिस्तर पर मैं कभी सोया नहीं, मुझे बड़ा दुख हो रहा है, मुझे नीचे सो जाने दें।
वह नीचे सो गये। पांच मिनट बाद मैंने देखा वो घर्राटे ले रहे हैं। सुबह मैंने अपने मेजबान को कहा कि आपने इनको बड़ा दुख दिया। कहने लगे, दुख? आप कैसी बात करते हैं! मुझसे क्या