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और क्या करें! मगर दो कुर्सियों पर कोई बैठ कैसे सकता है!
नहीं, दो सिंहासन पर बैठने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए एक सिंहासन खाली कर दिया। तुमने यही देखा है, जैन-शास्त्रों में बस इसी का वर्णन है; जो सिंहासन छोड़ दिया उसका वर्णन है, इसलिए ये शास्त्र अंधों ने लिखे होंगे। त्याग का वर्णन है, जो परमभोग उपलब्ध हुआ उसकी कोई बात ही नहीं हो रही है। तो ऐसा लगता है, ऐसी भ्रांति पैदा होती है कि महावीर त्यागी थे। मैं तुमसे कहता हूं, परमभोगी थे। त्याग? समझदार त्याग करेगा? त्याग का अर्थ ही क्या होता है? अगर कौड़िया छोड़ दी और हीरे संभाल लिये तो इसको त्याग कहोगे! व्यर्थ छोड़ दिया, सार्थक को पकड़ लिया, इसको त्याग कहोगे? असली साम्राज्य स्थापित हो गया, नकली साम्राज्य छोड़ दिया, इसको त्याग कहोगे?
नहीं, यह त्याग नहीं, त्यागी तुम हो| असली छोड़े, नकली पकड़े बैठे हो, त्यागी तुम हो। तुम्हारे महात्याग की जितनी प्रशंसा हो उतनी कम है। तुम कुछ ऐसे त्यागी हो कि जिसका हिसाब नहीं। अगर सोना और मिट्टी रखी हो, तुम तत्काल मिट्टी पकड़ लेते हो, तुम छोड़ते ही नहीं मिट्टी। तुम्हें मिट्टी ही सोना दिखायी पड़ती है, और सोना मिट्टी दिखायी पड़ता है। और तुमने ही महावीर और बुद्ध की कथाएं लिखी हैं। तुमने सब गड़बड़ किया। तुमने इस तरह सिद्ध करने की कोशिश की तो जैन-शास्त्रों में लिखा है, इतने घोड़े छोड़े, इतने हाथी छोड़े, इतने रथ–संख्या बड़ी करते चले जाते हैं। न इतने घोड़े थे, न इतने रथ थे। हो भी नहीं सकते, क्योंकि महावीर का राज्य बड़ा छोटा था। एक तहसील से ज्यादा बड़ा नहीं था। तहसीलदार की हैसियत से ज्यादा बड़ी हैसियत हो नहीं सकती। जब महावीर ने राज्य छोड़ा तब इस देश में कोई दो हजार राज्य थे। टुकड़ों -टुकड़ों में बंटा था। छोटे -छोटे राज्य थे। जैसे अभी भी थे। दस-बीस गांव किसी के पास हैं, वह राजा। इतने घोड़े-हाथी जिसने लिखे हैं जैन -शास्त्रों में, इनको तो खड़े करने की भी जगह नहीं थी उनके राज्य में।
___ मगर आदतें हमारी खराब हैं। कुरुक्षेत्र में युद्ध हुआ अट्ठारह अक्षौहिणी सेना! वह जगह इतनी नहीं है। वहा अगर अट्ठारह अक्षौहिणी सेना खड़ी करो तो खड़ी ही नहीं हो सकती है, लड़ने की तो बात ही और है। लड़ने के लिए थोडी-बहुत जगह तो चाहिए। बिलकुल घसमकश खड़ा कर दो उनको -तो भी खड़े नहीं हो सकते -मगर फिर हाथ भी नहीं हिलेगा, रथ वगैरह चलाना और घोड़े वगैरह दौड़ाना, यह असंभव है। मगर संख्या बड़ी करने का एक मोह होता है। वह हम पागल हैं, हम संख्या पर भरोसा करते हैं। हमारी आदतें ऐसी हैं। तुम्हारी जेब में पांच रुपये पड़े हों, तो तुम इस तरह दिखलाने की कोशिश करते हो, पचास पड़े हैं। क्योंकि हमारे मन में एक ही मूल्य है -धन का।
तो महावीर ने त्याग किया-छोटा-मोटा धन त्याग किया तो छोटा-मोटा त्याग हो जाएगा। हम जानते एक ही उपाय हैं, त्याग को भी तोलना हो तो धन के तराजू पर ही तोलते हैं। तो खूब त्याग दिखाते हैं -इतना-इतना था, वह सब छोड़ा! देखो, कितना महान त्याग! लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, असली बात तुम चूके जा रहे हो| जो पाया, उसकी बात करो। क्योंकि पाने के लिए छोड़ा। सच तो यह है, पाकर छोड़ा। इधर मिल गया, अब उधर कचरे को कौन संभालता है!
कहने लगे जनक, 'अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां धर्म, कहां काम, कहां अर्थ? और