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तुम कहते हो, मैं तो हर स्थिति में सुखी हूं, तो इस बात के कहने में कोई भी अर्थ न रहा । यह व्यर्थ हो गयी। तुम किन्हीं स्थितियों में जरूर दुखी होते होओगे, तभी कहते हो हर स्थिति में सुखी हूं।
तद्वंद्वस्य मे सदा ।
जनक कहते हैं, मैं द्वंद्व के बाहर हूं - गतद्वंद्वस्य पार। जहां तक द्वंद्व है, वहां तक मैं नहीं। जहां द्वंद्व नहीं, वहां मैं हूं। फिर वहां न कोई शास्त्र है, न आत्म-विज्ञान है। न विषय रहित मन है। वहा तृप्ति भी कहां, क्योंकि वहां तृष्णा भी नहीं है। जब तक तृष्णा है तब तक तृप्ति है। जब कोई आदमी कहता है कि मैं तो बड़ा संतुष्ट हूं, मेरे मन में असंतोष रहा ही नहीं, तो समझना कि असंतोष कहीं-न-कहीं होगा। नहीं तो तृप्ति का अनुभव कैसे होता ? प्यास न हो तो तृप्ति का अनुभव नहीं होगा। भूख न हो तो तृप्ति का अनुभव न होगा। सारे अनुभव अपने विपरीत को अपने साथ ही खींच लाते हैं। इसलिए मैंने कल तुमसे कहा कि अगर तुम्हारे जीवन में सुख के शिखर अनुभव होते हैं, तो ध्यान रखना, दुख की घाटियां भी पास ही हैं। तुम उनमें गिरोगे, बच न सकोगे।
कृष्णमूर्ति की देशना में एक शब्द बडा बहुमूल्य है च्वइसलैसनेस, विकल्परहितता, चुनावरहितता। चुनना ही नहीं। अगर तुम इतना ही कर लो कि खड़े देखते रहो और चुनाव न करो-नको सुंदर, न कहो असुंदर, न कहो अपना, न कहो पराया, न कहो प्रीतिकर, न अप्रीतिकर, न पास रखना चाहो, न दूर हटाना चाहो तो उसी चुनावरहितता में तुम मुक्त हो गये।
'स्वरूप को कहां रूपिता है, कहां विद्या है, कहां अविद्या है, कहां मैं है, अथवा कहां यह, कहां मेरा है; कहां बंध है, कहां मोक्ष है?'
क्व विद्या क्व च वाउविद्या क्याहं क्येदं मन क्व वा ।
क्व बंधः क्व च वा मोक्षः स्वरूपस्य क्व रूपिता । ।
स्वरूपस्य क्व रूपिता
'स्वरूप को कहां रूपिता है?"
शब्द का उपयोग तो करना पड़ रहा है, निःशब्द को बताने के लिए। इसलिए शब्द की सीमा को ध्यान रखना। इसलिए जितना बहुमूल्य वचन होगा उतना विरोधाभासी होगा। जैसे, स्वरूप को कहां रूपिता? स्व-रूप, और फिर कहते हैं कहां रूपिता? स्वरूप को कहां रूप? स्वरूप शब्द में ही रूप है। लेकिन मजबूरी है। आदमी के पास जितने शब्द हैं, सभी द्वंद्व में भरे हैं। इसलिए गतद्वंद्व के लिए एक ही उपाय है प्रगट करने का कि हम विपरीत शब्दों का साथ-साथ उपयोग करें।
उपनिषद कहते हैं, परमात्मा दूर से भी दूर और पास से भी पास। बात ठीक नहीं मालूम पड़ती तर्कयुक्त नहीं है। या तो दूर है तो दूर है, या पास है तो पास है। यह क्या बात हुई कि दूर से भी दूर पास से भी पास! लेकिन मजबूरी है।
मजबूरी यह है-दूर कहें तो चूक हो जाती है, पास कहें तो चूक हो जाती है। क्योंकि जिसको पास कहा, पास कहने में ही दूर हो गया। पास में ही दूरी छिपी है। जिसको तुम पास कहते हो, यह भी दूरी को ही नापने का एक ढंग है। कोई मेरे पास बैठा है चार फीट दूरी पर, कोई छ: फीट दूरी