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के पहलू हैं। समय और देश, टाइम और स्पेस अलग-अलग चीजें नहीं हैं, दोनों जुड़े हैं। यह अष्टावक्र की गीता में, जनक के इस वचन में जोड़ है। यह आकस्मिक नहीं है कि एक साथ कहा
क्व देश:.....| क्व भूतं क्व भविष्यद्वा वर्तमानमपि क्व वा क्व देशः। न भूत, न भविष्य, न वर्तमान, और कोई देश भी नहीं, कोई 'स्पेस' भी नहीं।
यह दोनों एक सूत्र में कहे, बात जाहिर है कि दोनों का संबंध स्मरण में होगा। दोनों का संबंध अनुभव में होगा। देश और काल एक ही घटना के दो पहलू हैं। आइंस्टीन ने तो एक अलग ही शब्द बना लिया, स्पेसियोटाइम; अलग- अलग जिसमें न कहना पड़े। क्योंकि दोनों इकट्ठे हैं। समय को आइंस्टीन ने कहा, स्पेस का ही चौथा आयाम। समय और देश एक-साथ हैं। जैसे ही समय गया वैसे ही देश चला जाता है। कठिन होगा समझना, क्योंकि बुद्धि तो समय और देश में जीती है। बुद्धि के पार एक ऐसी जगह है, जहां जगह भी मिट जाती है।
इसलिए तुम अगर मुझसे पूछो कि आत्मा किस जगह है तो मैं उत्तर न दे सकंगा। किसी ने कभी उत्तर नहीं दिया, क्योंकि आत्मा जगह के बाहर है। शरीर किस जगह है, बताया जा सकता है। पूना में है, कि कलकत्ता में है, कि न्यूयार्क में है। अक्षांश-देशांश पर कहां है, तो नक्शे पर बताया जा सकता है कि इतने अक्षांश, इतने देशांश पर है। अभी तुम यहां बैठे हो, कौन कहां बैठा है, बताया जा सकता है। लेकिन आत्मा कहां है, उत्तर नहीं दिया जा सकता। लोग पूछते हैं, आत्मा कहां है, हृदय में है नाभि में है, मस्तिष्क में है, कहां है? तुम जब प्रश्न पूछते हो, तुम्हें पता नहीं है कि तुम एक गलत प्रश्न पूछ रहे हो जिसका कोई उत्तर नहीं हो सकता है। आत्मा स्थान के बाहर है। तुम पूछो, आत्मा कब है? सुबह छ: बजे है, कि दोपहर बारह बजे है, कि शाम तीन बजे है, आत्मा कब है? भविष्य में, वर्तमान में, अतीत में? नहीं, आत्मा के लिए फिर भी उत्तर नहीं दिया जा सकता है, आत्मा समय और स्थान के बाहर है। समय और स्थान आत्मा में हैं, आत्मा समय और स्थान में नहीं है। आत्मा ने सबको घेरा है। उस आत्मा में सब शून्य हो जाता है।
जनक ने कहा, आपकी कृपा से मैं वहां हूं जहां मेरे मन में ये प्रश्न उठ रहे हैं जिज्ञासा उठ रही है कि कहां गया समय, कहां गया वर्तमान, कहां गया अतीत, कहां गया भविष्य? और देश भी खो गया है। मैं शून्य में खड़ा हूं। और परम महिमा में विराजमान हूं।
नित्यं स्वमहिम्नि स्थितस्य में।
और शाश्वत रूप से स्थिर हो गया हूं। इसमें कुछ बदलाहट भी नहीं हो रही है, कुछ आ नहीं रहा है, कुछ जा नहीं रहा है। जो है, जैसा है, वैसा ही ठहरा है। अकंप, निष्कंप। यह जीवन की परम अनुभूति है।
'अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां आत्मा है और कहां अनात्मा है? अथवा कहां अचिता है, कहां चिंता है?
अब और एक अपूर्व सूत्र वे जोड़ते हैं। हिंदू जैन कहते हैं, आत्मा-उस परम सत्य का नाम।