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चुभ जाता है तो सभी काटे को फेंकना चाहते हैं। मजा तो तब है जब तुम फूल को फेंक दो। और जिसने फूल को फेंक दिया, उसके जीवन से कांटे समाप्त हो जाते हैं।
नहीं तो तुम उलझे ही रहोगे। जब घाटी में रहोगे, तब शिखर की आकांक्षा सताएगी। जब शिखर पर रहोगे, तब घाटी का भय पकड़ेगा कि फिर आती होगी घाटी, फिर होगी रात। यह सूरज ऊगा, यह दोपहरी हो गयी, यह सांझ होने लगी, रात आती ही होगी। न तुम शिखर पर शांत हो सकते हो, क्योंकि शिखर पर तुम्हें याद आती ही रहेगी घाटी की। सफल आदमी कहां आनंदित हो पाता है! इरा रहता है-अब विफलता लगी, अब विफलता लगी, कितनी देर और सफल रह पाऊंगा? इरा रहता है, कहीं खो तो न जाएगा। और जिसका भय है कि खो तो न जाएगा, उसका सुख कैसे हो सकता है? वह सुख धोखा– धोखा है।
हिर्स और हवसे-हयाते-फानी न गयी इस दिल से हवाए-कामरानी न गयी है संगे-मजार पर तिरा नाम रवी
मरकर भी उमीद-ए-जिदगानी न गयी नश्वर जीवन की लालसा नहीं गयी
हिर्स और हवसे-हयाते-फानी न गयी
जो छिन जाता है क्षण भर में, फिर हम उसे मांगने लगते हैं। कभी यह नहीं सोचते कि जो क्षण में छिन गया, फिर भी मिल जाएगा तो फिर क्षण में छिन जाएगा। उसका होना ही क्षणभंगुर
है।
हिर्स और हवसे-हयाते-फानी न गयी इस दिल से हवाए-कामरानी न गयी
और कितनी हारे तुमने उठायीं, फिर भी विजय की आकांक्षा नहीं जाती। विजय की उत्कंठा मन को पकड़े ही हुए है। फिर जीत लें। न जीत पाए संसार में, तो परमात्मा के जगत में जीत लें। नहीं बना पाए यहां स्वर्ग, तो वहा स्वर्ग मिल जाए। धन नहीं का, पुण्य जुड़ा लें। धन नहीं जुड़ा, ध्यान जुड़ा लें। मगर जीत कर दिखला दें।
इस दिल से हवाए-कामरानी न गयी यह उत्कंठा विजय की, यह मरते दम तक नहीं छोड़ती है।
है संगे-मजार पर तेरा नाम रवी अब तो कब पर नाम भी लिख गया। कब में दब गये।
मरकर भी उमीद-ए-जिदगानी न गयी लेकिन कब में दबे -दबे भी तुम फिर जिंदगी की उम्मीद करते रहोगे, फिर मिले जीवन, फिर हो जन्म। मरे तो जीवन की आकांक्षा, और जीए तुम कब ठीक से। जीए तो मौत का डर तो पकड़े ही रहा। कदम-कदम पर मौत घबडाती रही कि अब होगी, कि तब होगी। कि जरूर होनेवाली है, यह