Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 06
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 363
________________ होकर, निर्विचार होकर-मेरे भीतर कोई आवाज न रही, कोई तरंग न रही-गुरु के चरणों में जाकर झुका और उन्होंने कहा कि अब ठीक है, तू ले आया उत्तर! जब मैं कोई उत्तर न ले गया था और सिर्फ शून्य भाव से उनके चरणों में झुका था तब उन्होंने कहा, ले आया उत्तर! तो तेरी साधना पूरी हुई तो उस युवक ने कहा, ऐसा मुझे पहले क्यों न कहा, यह मैं कर लेता। वह दूसरे दिन सुबह पहुंच गया स्नान- ध्यान करके। चुप जाकर चरणों में गुरु के झुक गया लेकिन गुरु यह देखकर हंसने लगा। और गुरु ने कहा, पागल, उधारी से काम नहीं चलता। उसने कहा, लेकिन मैं ठीक वैसा ही झुक रहा हूं बिलकुल चुप एक शब्द भी नहीं बोला हूं। गुरु ने कहा, फिर भी उधारी से काम नहीं चलता। वह जब आया था, शून्य था, तू सिर्फ शून्य का आभास लेकर आया है। तू चेष्टा करके, ऊपर से मौन होकर आया है, भीतर तो लाख -लाख शब्दों के जाल बुने जा रहे हैं। भीतर तो विचारों की तरंगों पर तरंगें चल रही हैं। अभी जब त झका, तब भी तेरे मन में यह विचार चल रहा था कि देखें, अब गुरु स्वीकार करते हैं कि नहीं? फिर महीनों तक शिष्य विदा हो गया। जब सच में ही शून्य हो गया तो फिर आया। अब भी सब वैसा ही था-बाहर तो कुछ भेद न था-फिर झुका। और गुरु की चरणसेवा में जो एक शिष्य रहता था, उसने वह घटना भी देखी थी जब यह झुका था, यह घटना भी देखी। और गुरु ने कहा, ठीक, अब ठीक! तो ले आया, उत्तर तुझे मिल गया! वह जो चरणसेवा में रत था, उसने पूछा कि मैं कोई फर्क नहीं देखता हूं, तब भी यह ऐसे ही झुका था, अब भी वैसे ही झुक रहा है, तब भी ऐसा ही शात था, अब भी ऐसा ही शात है, तब आपने कहा कि उधार, बासा उत्तर काम न आएगा; अब कहते हैं, ले आया! मैं कुछ फर्क नहीं देखता हूं। गुरु ने कहा, फर्क बाहर नहीं है, फर्क भीतर है। जनक जो कह रहे हैं, ऊपर से समझोगे तो लगेगा वही दोहरा रहे हैं जो अष्टावक्र ने कहा, जरूरत क्या है? अब सब उसको पुनरुक्त करने का क्या प्रयोजन हो सकता है? लेकिन अगर भीतर देखोगे तो पाओगे, अष्टावक्र ने जो कहा था, वह फिर से जीवित हुआ है। जनक ने अपनी आत्मा उसमें डाल दी। अब ये जनक के ही स्वर हैं। इनको अब अष्टावक्र के मत मानना। अब ये जनक की अपनी निजवाणी है। ऐसा नहीं है कि अष्टावक्र को सोच-सोचकर जनक दोहरा रहे हैं। जो जनक की समझ पैदा हुई है, उस समझ का ही सार-निचोड़ इन सूत्रों में है। पहला सूत्र क्व भूतानि क्व देहो वा क्येद्रियाणि क्व वा मनः। क्व शून्यं क्व च नैराश्य मन्स्परूपे निरंजने।। 'मेरे निरंजन स्वरूप में कहां पंचभूत हैं, कहा देह है, कहां इंद्रियां हैं, अथवा कहां मन है? कहां शून्य है और कहां आकाश का अभाव है?' चकित भाव से जो कहा है अष्टावक्र ने उसकी चोट ऐसी प्रगाढ़ पड़ी है कि जैसे कोई नींद से

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