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दिनांक 7 फरवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, पूना ।
पहला प्रश्न :
परमात्मा अनुमान नहीं, अनुभव है - प्रवचन - तैहरवां
मैं कभी जीवन के शिखर पर अनुभव करता हूं। ऐसा लगता है कि सब कुछ जीवन का सब रहस्य पाया हुआ ही है। लेकिन फिर किन्हीं क्षणों में बहुत घनी उदासी और असहायता भी अनुभव करता हूं - मेरी वास्तविक समस्या क्या है, यह मेरी पकड़ में नहीं आता है।
शिखर जब तक है, तब तक घाटियां भी होंगी। शिखर की आकांक्षा जब तक है, तब तक
घाटियों का विषाद भी झेलना होगा। सुख को जिसने मांगा, उसने दुख को भी साथ में ही मांग लिया । और सुख जब आया तो उसकी छाया की तरह दुख भी भीतर आ गया।
हम सुख के नाम तो बदल लेते हैं, लेकिन सुख से हमारी मुक्ति नहीं हो पाती| और जो सुख से मुक्त नहीं, वह दुख से मुक्त नहीं होगा । अष्टावक्र की पूरी उपदेशना एक ही बात की है. द्वंद्व से मुक्त हो जाओ। जो निद्वंद्व हुआ, वही पहुंचा। जिस शिखर को तुम सोचते हो पहुंच गये, वह पहुंचने की भ्रांति है। क्योंकि पहुंचने का कोई शिखर नहीं होता पहुंचना तो बड़ी समभूमि है न ऊंचाई है वहा, न नीचाई है वहा । पहुंचना तो ऐसे ही है जैसे तराजू तुल गया दोनों पलड़े ठीक समतुल हो गये। बीच का काटा ठहर गया । या जैसे घड़ी का पेंडुलम बाएं गया, दाएं गया, तो चलता रहेगा। लेकि बीच में रुक गया, न बाएं, न दाएं, ठीक मध्य में, तो घड़ी रुक गयी।
जहां न सुख है, न दुख, दोनों के बीच में ठहर गये, वहीं छुटकारा है, वहीं मुक्ति है। अन्यथा मन नये-नये खेल रच लेता है। धन पाना, ध्यान पाना, संसार में सफलता पानी, कि धर्म में सफलता पानी। लेकिन जब तक सफलता का मन है और जब तक सुख की खोज है तब तक तुम दुख पाते ही रहोगे। क्योंकि हर दिन में रात सम्मिलित है। और फूलों के साथ काटे उग आते हैं। फूल काटो से अलग नहीं और रात दिन से अलग नहीं ।
छोड़ना हो तो दोनों छोड़ना । एक को तुम न छोड़ पाओगे। एक को हम सब छोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी सब की चेष्टा यही है कि रात समाप्त हो जाए, दिन ही दिन हो। ऐसा नहीं होगा । संसार द्वंद्व से बना है। ही, अगर तुम द्वंद्व के बाहर सरक जाओ, अतिक्रमण हो जाए, तुम दोनों के साक्षी हो जाओ। अब समझो फर्क।