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बौद्ध उस परम सत्य को नाम देते हैं, अनात्मा । अष्टावक्र दोनों के पार चले जाते हैं। अष्टावक्र का शिष्य जनक घोषणा करता है, अब न कोई आत्मा है, न कोई अनात्मा। न तो कोई मैं, न कोई पर। अब तो यह भी नहीं कह सकता कि मैं हूं। और यह भी नहीं कह सकता कि मैं नहीं हूं। कुछ ऐसी यी घटना घट रही है कि किसी शब्द में नहीं बंधती है। कोई अभिव्यक्ति अब सार्थक नहीं है।
क्व च आत्मा क्व च वानात्मा क्व शुभं क्याशुभं तथा ।
क्व चिंता क्व च वाचिता स्वमहिम्नि स्थितस्य मे।
अपनी महिमा में बैठा, न कोई चिंता पकड़ती है, और ऐसा भी नहीं कह सकता कि अचिता की अवस्था है। ऐसा भी नहीं कह सकता कि चिंता मौजूद नहीं है। न तो चिंता मौजूद है, न गैर-मौजूद है। चिंता और अचिता दोनों एक-साथ तिरोहित हो गयी हैं। न यह कह सकता हूं कि मैं आत्मा हूं, न यह कह सकता हूं कि मैं अनात्मा हूंं दोनों शब्द अधूरे हैं, पूरे-पूरे नहीं । और घटना इतनी बड़ी है कि और कोई शब्द इसे कह नहीं पाता। अब न कुछ शुभ है और न कुछ अशुभ । न कोई पुण्य, न कोई पाप। न कोई स्वर्ग, न कोई नर्क। न कोई सुख, न दुख । गये सब द्वंद्व, गये सब द्वैत । ' अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको कहां स्वप्न, कहां सुषुप्ति कहां जाग्रत और सुनना'कहां तुरीय?'
यह सूत्र छोड़ दिया था अष्टावक्र ने। कहा था, न स्वप्न, न जागृति, न सुषुप्तिा इन तीनों के पार जो है, तुरीय। लेकिन जनक कहते हैं, अब तुरीय भी कहां चौथे को तो हम तभी गिन सकते हैं जब तीन हों। तीन के बाद ही चौथा अर्थवान हो सकता है। जब तीन ही गये तो अपने साथ चौथे को भी ले गये, तुरीय को भी ले गये। संख्या ही गयी। संख्यातीत में प्रवेश हुआ।
यह
मैंने कहा कि थोड़ी-सी बात जैसे छोड़ दी थी अष्टावक्र ने, उसको जनक पूरा कर देते हैं। वे योग्य उतरते हैं कसौटी पर। वे अपने गुरु को कह रहे हैं कि आप मुझे धोखा मत दो। जब तीन चले गये तो चौथा कैसे बचेगा? मैं तुमसे कहता हूं, चौथा भी गया। गणना मात्र गयी।
क्व स्वप्न) - क्व सुमुप्तिर्वा क्व च जागरण तथा ।
क्व तुरीय भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य में ।।
और बड़ी अनूठी बात कहते हैं। स्वप्न गया, जागरण गया, निद्रा गयी, तुरीय भी गयी। और सब भय गया। अचानक भय को क्यों जोड़ देते हैं? भय से इसका क्या लेना-देना है?
गहरा संबंध है। ये सब तरंगें भय की ही हैं। ये सोना और जागना और स्वप्न और तुरीय, ये सब भय की तरंगें हैं। गहरे विश्लेषण पर पाया जाता है कि भय ही मन है। जब तक तुम भयभीत हो, तब तक मन है। जब भय गया, मन गया। जहां भय न रहा, मन न रहा। और जहां मन न रहा, वहां सब गणना गयी। यह गणना करनेवाला हिसाब - किताब लगानेवाला मन है। तुमने देखा कभी? जितने तुम भयभीत होते हो उतना ही हिसाब-किताब लगाते हो।
मेरे गांव में मेरे सामने एक सुनार रहता है। उसकी बड़ी मुसीबत है। वह ताला लगाएगा, फिर देखेगा हिलाकर फिर दो कदम चला जाएगा, फिर लौटकर आएगा, फिर ताला हिलाका और गांव भर