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आत्मा का थोड़ा स्वाद आपने दे दिया।
गुरु ने कहा, तू दीक्षित कर लिया गया। पहले से कहा, तू भाग जा। अब दुबारा इस तरफ मत देखना। तझे कोई अकल ही नहीं। त बिलकल मंदबद्धि है। त बगल की गली में मार लाया?
तुम गहरे से गहरे अंधकार में भी बैठोगे तो तुम हो। एक चीज अंधकार में भी अनुभव होती रहती है, वह है मेरा होना-वह अंधकार के पार है। उसे जानने के लिए प्रकाश की कोई जरूरत नहीं। उसका अपना निजी प्रकाश है। वह स्वयं -प्रकाशी है। उसके लिए किसी प्रमाण की कोई जरूरत नहीं। वह स्वत: प्रमाण है।
आंख बंद करके जिसे उस भीतर के प्रकाश का बोध होने लगा वही अंधकार में नहीं घबडायेगा। लोग अंधकार से घबड़ाते हैं इसलिए परमात्मा को प्रकाश कहा।
या जिन्होंने भीतर के सत्य को जानकर भी परमात्मा को प्रकाश कहा है उन्होंने भी इसी अर्थ में कहा है कि जब तुम बाहर से भीतर आते... बाहर एक तरह का प्रकाश है, फिर एक तरह का प्रकाश भीतर है। और भीतर का प्रकाश बाहर के प्रकाश से ज्यादा गहरा है। लेकिन यह भी अंतिम बात नहीं है, यह भी यात्रा की ही बात है।
पहला अनुभव-बाहर प्रकाश है, संसारी का अनुभव है, बहिर्मुखी का। दूसरा अनुभव-भीतर प्रकाश है, अंतर्मुखी का अनुभव है। लेकिन अष्टावक्र तो परम वाक्यों में भरोसा रखते हैं। वे कहते हैं, जहां अंतर और बाहर भी छै गये, बहिर्मुखी- अंतर्मुखी भी मिट गये; वह भी द्वंद्व गया, फिर वहां कैसा अंधकार, कैसा प्रकाश!
तो भीतर से भी भीतर एक जगह है। पहले बाहर से भीतर आना है, फिर भीतर से भी भीतर जाना है। बाहर से तो मुक्त होना ही है, भीतर से भी मुक्त होना है। एक ऐसी भी घड़ी है जब न तो तुम बाहर रहोगे, न भीतर रहोगे। उस घड़ी ही परम क्रांति घटती है। वहां न प्रकाश है, न अंधकार
'अनिर्वचनीय स्वभाववाले और स्वभावरहित योगी को कहा धीरता है, कहां विवेकिता है अथवा कहा निर्भयता है!
यह सूत्र बहुत अनूठा है 'अनिर्वचनीय स्वभाववाले और स्वभावरहित.....।' एक ही साथ दो बातें कही हैं अनिर्वचनीय स्वभाववाले और स्वभावरहित। समझना। क्य धैर्य क्य विवेकित्व क्य निरातकतापि वा। अनिर्वाव्यस्वभावस्य निस्वभावस्य योगिनः।।
योग की परम व्याख्या, योगी की परम व्याख्या। जो अनिर्वचनीय स्वभाव को उपलब्ध हो गया है और साथ ही साथ स्वभाव से मुक्त हो गया है। जो अपने से एक अर्थ में मुक्त हो गया है और एक अर्थ में अपने को जिसने पा लिया है। यह बड़ी विरोधाभासी बात है। वही पाता है जो अपने को