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तो मान ही लिया कि यह वही आदमी हो सकता है, और कौन कूदेगा? जिंदगी भर की कमाई सब दाव पर लगा दी। मगर वह आदमी मजे से सो रहा था। जब उस होटल के मैनेजर ने उसको जगाया और पूछा, आप अभी जिंदा, अखबारों में तो खबर छप गयी कि आप मर गये! तो उसने कहा मैं किस लिए मरूं? सच तो यह है कि दाव पर लगाकर सब कुछ पहली दफे मैंने जिंदगी का रस जाना। ऐसा प्रगाढ़ रूप से मैं कभी होश से भरा हुआ नहीं था। जब सब दाव पर लगाया - सारी जिंदगी दाव पर लगा दीं-तों सोच - विचार का मौका न रहा। एक-एक पल ऐसा सरकने लगा, जैसा कभी नहीं सरका था। अपनी ही सास की धड़कन सुनायी पड़ने लगी। इधर या उधर ! या तो सब गया, या सब दुगुना हो जाएगा। सोचने-विचारने की फुरसत न रही। ठगा खड़ा रह गया। और फिर हार भी गया। अब जब सब हार ही गया तो अब क्या ! इसलिए शाति से सो गया, अब तो कुछ बचा ही नहीं, बात ही खत हो गयी, अब सुबह देखेंगे, जो होगा होगा।
चिंता तो तब होती है जब कुछ हो। दो अवस्थाओं में चिंता मिटती है - या तो सब कुछ हो, या कुछ न हो। तो सब कुछ तो सिर्फ परमात्मा को होता है और कुछ न संन्यासी को होता है। बस दो ही हालत में चिंता मिटती है। क्योंकि दोनों ही हालत में पूर्णता होती है। या तो सब हो, फिर क्या चिंता! इसलिए परमात्मा निश्चित है। या कुछ भी न हो, फिर क्या चिंता ! चिंता करने को भी कुछ तो चाहिए। अब कुछ ही नहीं है तो चिंता कैसी ! तौ संन्यासी निश्चित है। और संन्यासी और परमात्मा का किसी बड़े भीतरी द्वार पर मिलन हो जाता है। क्योंकि पूर्ण और शून्य मिलते हैं।
खतरे का इसीलिए इतना आकर्षण है, क्योंकि खतरे में थोड़े जागरण का स्वाद आता है।
ये तीन अवस्थाएं हैं। जिसको तुम जागरण कहते, इसको ज्ञानी जागरण नहीं कहते - यह कोई जागना है! यह तो तुम सोए-सोए चल रहे हो। तुम सोए-सोए काम करने में कुशल हो गये हो। आख खुली है तुम्हारी लेकिन जागे तुम कहां? क्योंकि आख तो खुली है और भीतर हजार-हजार स्वप्न चल रहे हैं। और सपने तुम्हारे नहीं हैं। तुम सपनों के नहीं हो। सपने सब उधार हैं। सपने सब औरों के हैं। सपने सब किसी ने दे दिये हैं। सपने तुम आसपास से पकड़ रहे हो। तुम्हें इस सत्य का पता नहीं है कि सभी विचार जो तुम्हारे भीतर चलते हैं, तुम्हारे नहीं हैं। तुम तो निर्विचार हो, विचार तो तुम इधर-उधर से पकड़ लेते हो। ऐसा भी नहीं है कि कोई कहे तब तुम पकड़ते हो। तुम्हारे पास एक आदमी आकर बैठ गया, उसकी विचार की तरंगें तुम्हारी खोपड़ी में प्रविष्ट होने लगती हैं।
कभी-कभी किसी आदमी के पास बैठकर बड़े बूरे विचार आने लगते हैं। कभी किसी आदमी के पास बैठकर बड़े अच्छे विचार आने लगते हैं। इसीलिए तो लोग सत्संग में जाने लगे। सदियों पहले यह बात समझ में आ गयी कि किसी के पास बैठकर शुभ विचार आने लगते हैं, किसी के पास बैठकर अशुभ विचार आने लगते हैं। और किसी के पास ऐसी भी घटना घटती है कि विचार नहीं आते। जिस के पास बुरे विचार आएं, वह असाधु । जिसके पास अच्छे विचार आएं, वह साधु । और जिसके पास निर्विचार की थोड़ी-सी झलक आने लगे, वह संत परमहंस, बुद्ध, जिन। हमने कैसे पहचाना?
लोग पूछते हैं कि हमने कैसे पहचाना कि कोई आदमी जिनत्व को उपलब्ध हो गया है? कि