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को अपना मत समझो।
अब तुम कहते हो, मैं लौट-लौटकर अतीत की ओर देखता रहता हूं। यह व्यर्थ है, फिर भी आदती छूटती नहीं।
व्यर्थ होता तो छूट ही जाती। मैं कहता हूं व्यर्थ है यह बात ठीक है। मेरी छूट गयी। व्यर्थ का बोध और आदत का छूटना साथ-साथ घटते हैं। व्यर्थ का बोध हो जाए, आदत न छूटे, ऐसा कभी हुआ ही नहीं। यह तो ऐसे ही हुआ कि मैं तुमसे कहूं यह दरवाजा है इससे निकल जाओ, तुम कहो कि मालूम है दरवाजा यह है, लेकिन निकलूंगा तो मैं दीवाल से, पुरानी आदत! हालांकि सिर टकराता है, सिर में दर्द होता है, सिर खुल जाता है, गिर पड़ता हूं पछाड़ खाकर लेकिन क्या करूं! मालूम है कि यह दीवाल है और यह भी मालूम है कि इससे टकराने से पीड़ा होगी, निकलना हो नहीं सकता, लेकिन पुरानी आदत! क्या तुम ऐसा कहोगे? अगर तुम ऐसा कहो, तो दो में से कुछ एक ही बात सच हो सकती है। या तो तुम्हें दरवाजा दिखायी नहीं पड़ता कहां है, या तुम्हें दीवाल में ही दरवाजा दिखायी पड़ता है। लाख बुद्ध-महावीर, कृष्ण-क्राइस्ट चिल्लाते रहें कि दरवाजा यहां है, तुम लगाए क्यू खड़े दीवाल के सामने! तुम वहीं से निकलोगे। वहां सारी भीड़ भी खडी है। दरवाजे पर तो कभी कोई इक्का-दुक्का आदमी निकलता दिखायी पड़ता है, लोग तो दीवालों से टकरा रहे हैं।
तो पहली बात तो स्मरण करो कि यह तुम्हारी समझ नहीं है। और दूसरे की समझ से जीने की कोशिश करोगे तो बहुत मुश्किल में पड़ोगे। यह ऐसा ही है जैसे कोई दूसरे की आंख से देखने की कोशिश करे।
एक आदमी अंधा हो गया। चिकित्सकों ने बहुत कहा इलाज करवा लो, आंख अभी ठीक हो सकती है। लेकिन उसने कहा, मैं अस्सी साल का हो गया और अब आंख का इलाज करवा कर भी क्या करना! साल-दो साल की बात है। आज गया, कल गया और फिर आंखों की कोई कमी है मेरे घर में! मेरी पत्नी की आंखें, मेरे आठ बेटे हैं उनकी सोलह आंखें, मेरी आठ बहुएं हैं उनकी सोलह आंखें, ऐसा सोलह-सोलह बत्तीस और दो चौंतीस आंखें मेरे घर में हैं। न हुईं दो आंखें तो क्या फर्क पड़ता है! बात तो बड़े अर्थ की कह रहा था बुड्डा, लेकिन उसी रात झंझट हो गयी। घर में आग लग गयी। वे चौंतीस आंखें एकदम बाहर निकल गयीं। और वे दो आंखें जो अंधी थीं, बुड्डा भीतर रह गया। तब उसे याद आया कि अपनी ही आंख हो तो समय पर काम पड़ती है।
बाहर पहुंचकर जरूर पत्नी चिल्लाने लगी, बचाओ मेरा पति भीतर रह गया, लेकिन जब लपटें उठ रही थीं तब तो वे भाग खड़ी हुई तब तो अपनी ही याद रही। इतने संकट में कहां पति, कहां पत्नी! इतने सकट में आदमी अपने को बचा ले, वही बहुता बहुएं भी रोने लगी बेटे भी चिल्लाने लगे, बाहर भीड़ इकट्ठी हो गयी, लेकिन कोई भीतर आने की हिम्मत न करे और का द्वार-दरवाजों से टकरा-टकराकर जलने लगा। निकलने की कोशिश करते -करते मर गया।
आंख अपनी हो तो ही काम आती है। मेरी आंख तुम्हारे काम न आएगी। ही, अगर बातचीत करनी हो, सोच-विचार करना हो तो काम आ जाएगी। लेकिन जब जिंदगी में आग लगेगी, जब जरूरत