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शिविरों में आए। फिर मुझे मिलने आए। मैंने पूछा कि अब दिखायी नहीं पड़ते? तो उन्होंने कहा, अब क्या करूं आकर? आपको सुना, समझा, अब जब तक उसको कर न लूं तब तक आने से क्या ? अब करने में लगा जब हो जाएगा.. तो मैंने उनसे कहा, फिर सुना ही नहीं, समझा ही नहीं । सुन लिया, समझ लिया, करने को नहीं बचना चाहिए। करने की बात ही गड़बड़ है। मैंने तुमसे कहा, यह दीवाल है, यह दरवाजा है, तुमने सुन लिया, समझ लिया, अब करने को क्या है? जब निकलना हो, दरवाजे से निकल जाना, दीवाल से मत निकलना। अब तुम कहते हो, अभ्यास करेंगे।
अभ्यास करेंगे कि यह दीवाल है, अभ्यास करेंगे कि यह दरवाजा है, जब अभ्यास खूब हो जाएगा तब निकलेंगे। अभ्यास धोखा है। यह सारसूत्र है अष्टावक्र का । अष्टावक्र अभ्यास - विरोधी हैं। वे कहते हैं, अभ्यासमात्र, साधनामात्र धोखा है। तुमने करने की बात उठायी तो एक बात पक्की हो गयी कि तुमने सुना नहीं और अब तुम तरकीबें निकाल रहे हो। अब तुम अपने अहंकार को समझा रहे हो, कि सुन तो मैंने लिया। धोखा तुम दे रहे हो, सुना तुमने नहीं। सुन तो लिया, तुम कह रहे हो, अब करेंगे। करने से ही होगा न! सुनने से क्या होता है?
लेकिन सत्य की महिमा यही है कि सुन लिया तो हो गया। सत्य कोई साधारण घटना थोड़े ही है। तुम्हारे कृत्य पर थोड़े ही निर्भर है सत्या तुम्हारे करने से सत्य थोड़े ही पैदा होता है। सत्य तो है, तुम्हारी आंख के सामने खड़ा है, तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है, करना क्या है? एक हुंकार में, एक उदघोष में स्मरण आ सकता है। श्रवणमात्रेण ।
लेकिन आदमी बड़ी तरकीबें निकालता है। वह सोचता है बड़ी दूर है मंजिल, परमात्मा तो बहुत दूर है, चलेंगे, खोजेंगे, भटकेंगे, जनम-जनम लगेंगे, अच्छे कर्म करेंगे, बुरे कर्मों को छोड़ेंगे, बुरे किये हुओं को अच्छों से काटेंगे, ऐसा धीरे- धीरे सम्हालते - सम्हालते पुण्य की संपदा, एक दिन पहुंचेंगे। नहीं, तुम फिर न पहुंच सकोगे तुम खुद उसे दूर किये दे रहे हो जो पास है।
मैंने तो सोचा था अपनी
सारी उमर तुझे दे दूंगा इतनी दूर मगर थी मंजिल चलते -चलते शाम हो गयी निकला तो मैं था गुदड़ी में लाल छिपाए बरन-बरन के कुछ संग खेले थे बचपन के कुछ संग सोये थे यौवन के कुछ पर रीझ गयी थीं कलियां कुछ पर झूम गयी थीं गलियां कुछ थे रत्न अमोल हृदय के कुछ
थे नौलख हार नयन के