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अब इसको दूसरी घबड़ाहट पकड़नी शुरू हुई कि मैं पकड़ा जाऊंगा। अब मुझे सजा होगी। अब मैं जेल में डाला जाऊंगा, अब मेरी जिंदगी बरबाद हुई। महीना बीता, दो महीना बीता, बस वह अपने कमरे में पड़ा पड़ा यही सोचता है। रास्ते पर कोई निकलता है, पुलिस के जूते की चरमराहट और वह समझा कि आ गये ! किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी - पोस्टमैन है - और वह समझा कि आ गये, बस, वह तैयार हो जाता है कि अब गये! तीन महीने बीत गये और कुछ भी नहीं हुआ। लेकिन यह विचार अब उसके भीतर घूम रहा है कि पकड़े गए, पकड़े गये, पकड़े गये।
एक दिन अचानक—यह हालत इतनी विकृत हो गयी उसकी - कि जाकर उसने, पुलिस स्टेशन जाकर समर्पण कर दिया कि मैंने हत्या की है, मुझे पकड़ते क्यों नहीं? अब मैं कब तक इसको बर्दाश्त करूं? मैं पागल हुआ जा रहा हूं
पुलिस इंस्पेक्टर उसे समझाने लगा कि तेरा दिमाग खराब हो गया है, तू क्यों हत्या करेगा? तुझे हम जानते हैं। भाग जा, तेरा दिमाग खराब हो गया है! पढ़ाई-लिखाई ज्यादा कर ली, ज्यादा जग गया रात में, तेरी आंखें कुछ सोया नहीं ठीक से, ठीक से सो ! वह उसको भेज देता है घर वापिस, मगर वह लौट - लौट कर आ जाता है। वह कहता कि मैंने मारा है, आप मानते क्यों नहीं? अब तो उसे बड़ी बेचैनी होने लगी कि किसी तरह उसे सजा मिल जाए तो अपराध से छुटकारा हो। ऐसा आदमी उलझता है। विचार कृत्य बन जाते हैं।
इसलिए महावीर, बुद्ध जैसे चिंतकों ने यह कहा है कि अगर विचार में भी कोई बुरा कर्म करो, तो सोच-समझ लेना! यह मत सोचना कि सिर्फ विचार है। सिर्फ विचार जैसी कोई चीज ही नहीं है। क्योंकि हर विचार एक लकीर छोड़ जाता है। फिर जो विचार आज किया, वह कल भी होगा, परसों भी होगा। धीरे - धीरे और सहजता से होने लगेगा। एक दिन अचानक तुम पाओगे कि कृत्य बन गया। विचार की रेखा ही गहरी होते-होते कृत्य बन जाती है, कर्म बन जाती है।
इसलिए जिसे कृत्य के जगत से मुक्त होना हो, उसे विचार के जगत से ही मुक्त होना होता है। सिर्फ निर्विचार व्यक्ति ही कर्म के जाल से मुक्त होता है। इसीलिए तो हमने निर्विचारता को कर्म के जाल से मुक्त होने का आधार माना। तुम कर्म से मुक्त न हो सकोगे, जब तक तुम ध्यान में इतने गहरे न हो जाओ कि विचार उठने बंद हो जाएं।
कृष्ण ने गीता में कहा कि अगर तुम भीतर शून्य हो और कर्म करो तो कोई पाप नहीं लगता। और तुम कर्म न भी करो और भीतर विचार जलते रहें, तो पाप हो गया।
कृत्य का उतना मूल्य नहीं है, जितना विचार का। क्योंकि कृत्य तो विचार के पीछे आता है। गौण है, छाया है, परिणाम है।
'आप यह भी कहते हैं कि सब कुछ घटित होता है, तो इस होने और वैचारिक कृत्य में - विचार से घटित होनेवाले कृत्य में क्या अंतर है?'
इतना ही अंतर है कि जब तक तुम विचार करके घटित करते हो कुछ, तब तुम कर्ता बनते
हो।