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रहो जहां हो, जैसे हो, बस भीतर कोई पकड़ न रह जाए ।
मैं नहीं पिछली अभी झंकार भूला
मैं नहीं पहले दिनों का प्यार भूला
गोद में ले मोद से मुझको लसो तो
आज मन-वीणा प्रिये फिर से कसो तो
मन भूलता ही नहीं। फिर-फिर जवान होता रहता है। फिर-फिर लौटकर तरंगें उठती रहती
हैं। फिर-फिर पुराने राग-रंग देख लेने का मन होने लगता है।
अभी तक ढूंढती है उर्वरा सुरगंध फूलों में सहकर टूटकर बीती अधूरी बात कानों की अभी तक है चुराती आंख जैसे चांदनी भू से अभी तक आड़ ज्यों की त्यों सितारों के मचानों से
नहीं बसे हुए हैं रूप के पगचिह्न कुंजों में हवाओं पर खिंचे हैं मुग्ध पलकों के झुके साये समय के गाल पर सूखी नहीं विश्वास की बूंदें
अभी तक शून्यता का वक्ष सांसों से धड़क जाए
लौट-लौटकर फिर हृदय धड़क जाता है वासना से । फिर रस में रस मालूम होने लगता है। फिर सपने सजीव हो जाते हैं। तुम के हो गये हो, सपने अभी बूढ़े नहीं हुए तुम के हो गये हो, शरीर का पतझर आ गया, लेकिन मन अभी भी वसंत मना रहा है। मन अभी भी वहीं अटका है। शरीर की मौत करीब आने लगी- बुढ़ापे का क्या अर्थ होता है? शरीर की मौत करीब आने लगी। संन्यास क्या अर्थ होता है? मन की भी मौत करीब बुला ली। शरीर की मौत अपने आप आती है, मन की मौत अपने-आप नहीं आती। संन्यास ठीक-ठीक अर्थों में आत्महत्या है। तुम जब कहते हो किसी आदमी ने आत्महत्या कर ली, तब तुम ठीक नहीं कहते हो, क्योंकि वह शरीर को ही मारता है, आ को क्या मारेगा! संन्यासी आत्मघात करता है। आत्मघात का अर्थ है, मैं को मार डालता है। मैं के भाव को मार डालता है। मन को ही मार डालता है। यह जो मन की मौत है, वही संन्यास है।
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और साहस तो जरूरी है। अपनी स्वयं की मृत्यु की तरफ जाने के लिए, बिना साहस के कैसे जा सकोगे? लेकिन साहस सहज आ जाता है। एक बार यह दिखायी पड़ जाए कि यहां कुछ भी नहीं है। इब्राहिम एक सम्राट हुआ। एक रात उसने देखा कि उसके छप्पर पर कोई चल रहा है, तो उसने जोर से आवाज दी कि कौन है? तो उस आदमी ने कहा, सोओ शांति से, गड़बड़ न करो, मेरा ऊंट खो गया है, उसे खोजता हूं। वह तो समझा कि कोई पागल आदमी छप्पर पर चढ़ गया है- ऊंट खोजने, छप्पर पर! ऊंट कहीं छप्परों पर खोते हैं! वह उठा, उसने अपने सैनिक दौड़ाए, लेकिन वह आदमी भाग चुका था। लेकिन उसकी बात उसके मन में गूंजती रही।
सुबह उठा, फिर भी बार-बार याद आता रहा, यह आदमी कैसा है! ऊंट, राजमहल की छप्पर