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भोगी की मति योगी की गति
वही है ऊर्जा, अलग- अलग तो नहीं। रति-यह जो काम है, मन की वासना है। भोगी की मति-इसी कामना में भोगी का मन डूबता रहता है। इबकियां लगाता रहता है। अब जो तुम कर भी नहीं सकते, उसकी कल्पना में डबे हो। जो हो भी नहीं सकता, उसकी योजना बना रहे हो। शेखचिल्लीपन छोड़ो।
रति
भोगी की मति योगी की गति
और योगी यह समझकर कि जो हुआ वह भी व्यर्थ था, सपने जैसा आया और गया, अब उसमें क्या रखा! जब था तब भी सपना था, समझदार को। और नासमझ को, जब नहीं है तब भी सच मालूम हो रहा है। तो जिस रति में भोगी इब जाता, बंध जाता, उसी रति को समझकर योगी गतिमान हो जाता। रति विरति बने
यही काम्य, आवृत्ति बने, यह कामना
और फिर-फिर वही कर लूं जो किया, ऐसी आवृत्ति की आकांक्षा का नाम ही कामना है। जो एक बार कर लिया, ठीक से कर लिया, देख लिया, समझ लिया, उससे सदा के लिए मुक्ति हो जानी चाहिए। लेकिन फिर-फिर करूं, इसका मतलब है कि ठीक से किया नहीं।
तो मैं तमसे कहता हं के तम हो गये होओगे लेकिनतम ठीक से जवान न रहे। तमने जो किया वह ठीक से न किया। अधूरा-अधूरा किया। अटका- अटका रह गया। अपूर्ण रह गया। मन उसे पूरा करने के लिए आतुर है। इसलिए अब कल्पना में पूरा कर रहा है। जिसे तुम कर रहे हो उसे ठीक से कर लो। यह मेरी बुनियादी धारणाओं में एक धारणा है कि तुम जो कर रहे हो उसे ठीक से कर लो, जल्दबाजी कुछ भी नहीं है, फल पकेगा तो गिरेगा। तुम कच्चे गिराने की चेष्टा मत करो।
अब ऐसा लगता है कि जिन्होंने पूछा है, धार्मिक आदमी मालूम होते हैं। तो जब जवान रहे तो जो भूल-चूके करनी थीं क्योंकि करने से ही कोई उनसे पार होता है वह नहीं कर पाए। जवानी में शास्त्र पढ़ते रहे होंगे, मंदिर में बैठे रहे होंगे। अब बुढ़ापे में जब ऊर्जा चली गयी, जीवन क्षीण होने लगा और घबड़ाहट पकड़ने लगी कि मौत के पदचाप सुनायी पड़ने लगे, तो अब बार-बार खयाल आ रहा होगा कि जो नहीं कर पाए, वह कर ही लेते। पता नहीं मौत के बाद बचते कि नहीं बचते। अब कल्पना में हिसाब चल रहा है।
आदमी रोता ही रहता। करता है तब रोता है, फिर जब करने के दिन चले जाते हैं तब रोता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि लोग किस-किस भांति अपने को धोखा देते हैं, आश्चर्य होता है देखकर।