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सूझ, होश, समझ। सूझों का पहन कलेवर-सा
अपने चारों तरफ जागृति की एक चादर ओढ़ लो। रोशनी को जगा लो। अपने चारों तरफ विवेक, होश, चैतन्य को संभाल लो।
सूझों का पहन कलेवर-सा बिकलाई का कल जेवर-सा घुल-घुल आंखों के पानी में फिर छलक -छलक बन छंद चलो पर मंद चलो! और तब तुम्हारे जीवन से एक छंद छलकेगा, जब तुम मंद चलोगे। सूझों का पहन कलेवर-सा
जब तुम जतन से जिओगे, होशपूर्वक, साक्षी बने, तुरीय में, तो तुम्हारे जीवन में एक छंद का अवतरण होगा। उस छंद को ही अष्टावक्र ने स्वच्छंदता कहा है। तुम्हारे जीवन में एक गीत उमगेगा। तुम्हारे जीवन में कोई वीणा अनायास बज उठेगी। बिना बजाए बजने लगेगी। इसीलिए उसे अनाहत नाद कहा है, क्योंकि बिना बजाए बजती है, तुम्हें बजाना भी नहीं पड़ता। बज ही रही है। लेकिन तुम बाहर की आवाजों में उलझे, इसलिए भीतर की आवाज सुनायी नहीं पड़ती।
'ज्ञानी चितासहित भी चितारहित है, इद्रियसहित भी इद्रियरहित है, बुद्धिसहित भी बुद्धिरहित है और अहकारसहित भी निरहकारी है।
ज्ञ: सचिंतोउपि निश्चित: सेन्द्रियोउपि निरिन्द्रिय। सुबुद्धिरपि निर्बुद्धि साहकारोउनहंकृति।।
किसी ने नेपाल के एक बहुत अनूठेसंत शिवपुरी बाबा से पूछा आप कभी दुखी होते हैं? उन्होंने कहा. दुख होता है। पर उस आदमी ने पूछा, मैं यह नहीं पूछता हूं कि दुख होता है मैं पूछता हूं? आप कभी दुखी होते हैं? उन्होंने कहा. दुख होता है, मैं दुखी नहीं होता।
इस फर्क को समझना। दुख होता है, मैं दुखी नहीं होता। दुख होना एक बात है। पैर में काटा गड़ेगा-बुद्ध को गड़े कि बुद्ध को, इससे क्या फर्क पड़ता है-पैर में काटा गड़ेगा तो पीड़ा होगी। लेकिन बुद्ध पीड़ा में बुरी तरह खो जाएगा। वह पीड़ा ही हो जाएगा। वह पीड़ा के साथ तादात्म्य कर लेगा। वह चीखने -चिल्लाने लगेगा। बुद्ध को भी पीड़ा होगी, लेकिन वे पीड़ा के बाहर खड़े रहेंगे। वे पीड़ा के साक्षी मात्र रहेंगे। काटे को बुद्ध भी निकालेंगे, लेकिन बाहर-बाहर।
तुम्हारे घर में आग लग जाएगी तो तुम्हें लगता है तुममें आग लग गयी क्योंकि तुमने घर के साथ बड़ा राग बांध रखा था। शानी के घर में आग लग जाएगी तो घर में आग लगी। तुम जब मरोगे, तो तुम्हें लगेगा, मैं मर रहा हूं। ज्ञानी भी मरता है, मृत्यु उसको भी आती, लेकिन मरते क्षण में भी जानता है, देह जा रही, और देह तो मैं कभी भी नहीं था। इतना फासला है। इतना भीतरी भेद