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तो तर्कशास्त्र का एक मौलिक आधार है कि जहां स्व-विरोध हो, वहां सत्य नहीं हो सकता। अब या तो कोई आदमी जवान है या बूढ़ा है। या तो कोई आदमी जिंदा है या मुर्दा है। अब तुम कहो कि यह आदमी जिंदा भी है और मुर्दा भी है! तो तर्क कहेगा कि कहीं कुछ भूल हो रही है। कोई एक बात गलत होगी। दोनों तो साथ-साथ सही नहीं हो सकतीं। युगपत, एक साथ कैसे सही हो सकती 'हैं। कि तुम कहो, एक आदमी चोर भी है और संत भी। यह कैसे होगा! इसलिए तर्क का एक नियम है, कि जहां स्व-विरोध, वहां बात गलत है।
एक मुकदमा अदालत में चलता था और जो मजिस्ट्रेट था, वह अभी-अभी कानून पढ़कर आया था, नया-नया, कानून और तर्क में निष्णात था। हत्या हो गयी थी। और एक गवाह ने जो वक्तव्य दिया उसमें उसने कहा कि हत्या जब हुई तो घर के भीतर हुई दीवालों के भीतर हुई और दूसरे गवाही ने उसी क्षण खड़े होकर कहा कि नहीं, हत्या खुले आकाश के नीचे हुई मजिस्ट्रेट ने कहा, तुम दोनों सही नहीं हो सकते, तुममें कोई एक जरूर झूठ बोल रहा है। लेकिन एक तीसरे आदमी ने खड़े होकर कहा कि नहीं, कोई झूठ नहीं बोल रहा है, मकान के भितर हत्या हुई और खुले आकाश के नीचे हुई क्योंकि छप्पर अभी पड़ा नहीं था। नया-नया मकान बन रहा था। दीवालें भर उठी थीं।
ऊपर से जो विरोधाभासी दिखायी पड़ता है, उसकी भी संभावना हो सकती है। जीवन तर्क से बड़ा है। जैसे, यह अष्टावक्र का सूत्र कि आत्मज्ञानी है भी नहीं और नहीं भी नहीं है।
समझो।
आत्मज्ञानी नहीं है, क्योंकि परमात्मा है, आत्मज्ञानी ने तो अपने को शून्य कर लिया। अस्तित्व है, अपनी मैं की धारणा तो उसने गिरा दी, इस अर्थ में आत्मज्ञानी नहीं है। उसकी कोई मैं की धारणा तो बची नहीं, अब वह घोषणा नहीं कर सकता कि मैं हूं परमात्मा है। तुम ध्यान रखना, जैसे कि उपनिषदों का वचन ' अहं ब्रह्मास्मि', जब तुम इसका अनुवाद करते हो और तुम इसका अर्थ करते हो, तो जरा-सा फर्क हो जाता है। लेकिन फर्क बड़ा है। इतना बड़ा फर्क कि जमीन और आसमान अलग हो जाते हैं। तुम जब इसको पढ़ते हो कि मैं ब्रह्म हूं तो तुम समझते हो मैं ब्रह्म हूं। तुम्हारा जोर मैं पर होता है। ब्रह्म तुम्हारी छाया बन जाता है। ब्रह्म तुम्हारी लंगोटी। तुम सज-बनकर खड़े हो जाते हो। जब आत्मज्ञानी कहता है, मैं ब्रह्म हूं, तो वह यह कह रहा है-ब्रह्म है, मैं कहां? मैं नहीं हूं? ब्रह्म ही है। और चूंकि वही है, इसलिए मैं भी ब्रह्म हूं। मैं वह पीछे रख रहा है, ब्रह्म को आगे रख रहा है।
जब अष्टावक्र कहते हैं, आत्मज्ञानी नहीं है, तो उसका अर्थ यह-उसके पास कोई अस्मिता कोई अहंकार नहीं है। लेकिन यह आधा वक्तव्य है। आधा उन्होंने तत्क्षण जोड़ दिया क्योंकि खतरा है। आदमी बड़ा खतरनाक प्राणी है। समझ के मामले में उससे नासमझी होने की ज्यादा आशा है। अगर तुम कहो कि आत्मज्ञानी नहीं है, इतना विनम्र है, इतना निरहंकारी है, तो हमारे अहंकार इतने बड़े हैं कि हम कहेंगे, अच्छा, तो हम भी आत्मज्ञानी हो गये-हम भी कहते हैं कि मैं भी नहीं हूं। तुम कह सकते हो कि मैं भी नहीं हूं और तुम्हारी आंख में होने का दावा हो सकता है। जब तुम कहते
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