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स्वानुभव और आचरण एक ही घटना-(प्रवचन-ग्याहरवां) दिनांक 5 फरवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, पूना।
पहला प्रश्न :
'अब मैं नाव्यो बहुत गोपाल, भक्त ऐसा गाता है। क्या भक्त की भांति ज्ञानी भी गाता है?
अनिवार्य है। नृत्य अनिवार्य है। क्योंकि अंतिम परिणति में उत्सव होगा ही। अगर
अंतिम परिणति में उत्सव न हो तो फिर उत्सव कब होगा? गीत और नृत्य तो केवल उत्सव के सूचक हैं। जब वसंत आएगा और वृक्ष अपने पूरे उभार पर होगा, तो फूल खिलेंगे। गंध भी बिखरेगी। और जब दीप जलेगा तो ज्योति भी झरेगी।
गीत तो अनिवार्य है। यह दूसरी बात है कि कौन कैसा गाए, कैसे गाए? भक्त अपने ढंग से गाता, ज्ञानी अपने ढंग से गाता। भक्त का गीत प्रगट है, इतनी का गीत अप्रगट है। भक्त परिधि पर नाचता, ज्ञानी केंद्र पर। भक्त का गीत और उत्सव ऐसे है जैसे मुक्त हास, कोई खिलखिला कर हंस पड़ा, जुहू के फूल झर गये। ज्ञानी का गीत ऐसा है-मंद-मंद मुस्कान। बहुत गौर से देखोगे तो पहचान पाओगे। ऐसी मोटी-मोटी नजर से देखा तो चूक जाओगे। बारीक, सूक्ष्म कारण हैं भेद के।
भक्त भी पहुंचता है उसी मंजिल पर जहां ज्ञानी पहुंचता है लेकिन अलग-अलग हैं उनके मार्ग। भक्त परमात्मा से अपने को जोड़ता, इतना जोड़ता, इतना जोड़ता कि भक्त बचता नहीं। भक्त अपने मैं को तू के चरणों में समर्पित करता। भक्त की आंख तू पर लगी है, भक्त की आंख बाहर लगी है। भक्त बाहर देख रहा है। भक्त को भीतर देखने की चिंता नहीं है। भीतर का देखना घटेगा, लेकिन बाहर देखने की अंतिम फलश्रुति में। इसलिए भक्त वृक्षों को देखता, चांद-तारों को देखता, नदी-पहाड़ों को देखता, क्योंकि सभी में उसी परमात्मा की झलक है। इसलिए भक्त पत्थर को भी पूज लेता। क्योंकि सारा अस्तित्व उसका है। भक्त अपने मैं को डुबाता और तू को बड़ा करता। एक ऐसी घड़ी आती, जब मैं शून्य हो जाता है और तू ही बचता है। तब भक्त नाचता है। लेकिन उसी घड़ी में एक क्रांतिकारी घटना और घटती है जो कि परम घटना है। जब मैं बिलकुल शून्य हो जाता है तो तू भी बचेगा नहीं, बच नहीं सकता। तू को बचने के लिए भी मैं की थोड़ी न बहुत मौजूदगी आवश्यक है। मैं के बिना कैसा तू? भक्त के बिना कैसा भगवान!
बायजीद ने कहा है, मुझे तुम्हारी जरूरत है, सच। तुम्हें भी मेरी जरूरत है। इकहार्ट ने कहा