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मैं
शरणं वज। मुझे एक की शरण आ। तुम साधारणतः सोचते हो कि ज्ञानी तो कहेगा मैं आपके पैर की धूल, मैं तो कुछ भी नहीं। लेकिन जरा शानियों को सुनो। अलहिल्लाज मंसूर कहता है, अनलहक । खुदा। मैं भगवान चढ़ गया, तो भी यही कह रहा था। सूली पर चढ़ते वक्त किसी ने पूछा कि मंसूर, अब तो छोड़ दे यह पागलपन की बात । मंसूर हंसने लगा और मंसूर ने कहा, मैं बोल रहा होता तो छोड़ भी देता, वही बोलता है, मैं क्या करूं? यह वही कहता है. अनलहक। यह शब्द मेरे नहीं हैं, यह शब्द उसी के हैं। मैं तो उसको समर्पित, वह जो बोले वही बोलूंगा।
एक बड़ी अनूठी झेन कथा है। एक झेन फकीर जंगल से गुजर रहा था। पाई चान उसका नाम था। एक लोमड़ी बीच रास्ते पर आ गयी और उसने कहा कि रुके महाराज ! फकीर बड़ा हैरान हुआ, लोमड़ी बोली! लोमड़ी ने कहा, ऐसा हुआ कोई पांच सौ साल हो गये मैं भी एक धार्मिक पुरोहित था । एक मंदिर में बड़ा पुजारी था। और एक आदमी ने मुझसे सवाल पूछा कि जो लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हैं, उन पर कार्य कारण का नियम काम करता है या नहीं? और मैंने कहा, नहीं। और उसकी वजह से मैं यह फल भोग रहा हूं। पांच सौ साल से लोमड़ी बना हूं। मेरा पतन हो गया । और मुझे यह सजा मिली है कि जब तक मैं ठीक उत्तर न खोज लूं तब तक मैं इस पशुभाव से मुक्त न हो सकूंगा। आप महाज्ञानी हैं, मुझे ठीक उत्तर बता दें।
पाई चान ने कहा, तू बोल, तू पूछ फिर से पूछ । क्या प्रश्न है? तो उस के पुरोहित ने जो पांच सौ साल से लोमड़ी बना बैठा है, उसने कहा कि प्रश्न यह है कि बुद्धपुरुष जो बुद्धत्व को उपलब्ध हो गये, क्या कार्य - कारण के नियम के बाहर हो जाते हैं? तो पाई चान ने कहा, कार्य –कारण के नियम में वे अवरोध नहीं बनते ।
समझना, बड़ी अनूठी बात कही। कार्य-कारण के नियम में वे अवरोध नहीं बनते। जो होता है, उसे होने देते हैं। न तो बाधा डालते, न सहयोग देते, जो होता है, होने देते हैं। और कथा कहती है कि लोमड़ी का सदभाग्य हुआ, ज्योति की किरण उस पर उतरी, वह फिर मनुष्य हो गयी।
इस कहानी को तथ्य की तरह मत पकड लेना, यह तो एक बोधकथा है। लोमड़ी और आदमी का सवाल नहीं है, पशुभाव और मनुष्यभाव का सवाल है। जो व्यक्ति गलती में जी रहा है, वह पशुभाव में जीता है। जो समझ में जीने लगा, उसका मनुष्यभाव पैदा हो गया। अब तुम हो, न मालूम कितने जन्मों से लोमड़ी बने हो । अभी पशुभाव से छुटकारा नहीं हुआ।
और यह जो वचन पाई चान ने कहा कि कार्य -कारण के नियमों में बाधा नहीं बनता, यही घटना जीसस के जीवन में घटती है, मंसूर के जीवन में घटती है। इसलिए मंसूर की बात करते हुए मुझे पाई चान की याद आ गयी। मंसूर ने कहा, मैं क्या करूं, वह बोलता है तो बोलने देता हूं। न मैं रोक सकता....... मैं हूं कौन रोकने वाला?
मंसूर को कई मंदिरों से निकाला गया, कई मस्जिदों से निकाला गया, कई गुरुगृहों से निकाला गया, कई गुरुकुलों से निकाला गया। क्योंकि वह जहां भी जाता वहीं बैठकर जब मस्ती आती तो वह कहता अनलहक, अनलहक । और वह इतनी मस्ती में कहता! उसका रोआं-रोआं पुलकित होकर कहता,