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न धावति जनाकीर्ण.....|
जो व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हुआ साक्षी को उपलब्ध हुआ, तुरीय का जिसने स्वाद लिया, अब वह भीड़ की तरफ नहीं भागता। भीड़ में क्या रस! दूसरे में तो तभी तक रस मालूम होता है जब तक अपना रस नहीं चखा। इसे याद रखना। दूसरे में तो तभी तक स्वाद मालूम होता है जब तक स्वयं का स्वाद नहीं लिया। दूसरे में तो हम अपने को डुबाते ही इसीलिए हैं कि अपने में डुबाना आता नहीं। अकेले बैठने में हमें कुछ रस ही नहीं आता। अकेला आदमी बैठा है तो कहता है, बड़ी ऊब लगती है। चलें, कहीं जाएं, किसी से मिलें -जुले। जिनसे तुम मिलने जा रहे हो उनको भी अकेले में ऊब लग रही है। वे भी उत्सुक हैं कि कोई उनको मिले। अब दो उबानेवाले आदमी मिल गये एक-दूसरे को। अब ये सोचते हैं, बड़ा सुख होगा! ये हो कैसे सकता है, गणित तो थोडा समझो।
एक उबा रहा था अपने को, दूसरा उबा रहा था अपने को, अब एक-दूसरे को उबाके। गुणनफल हो जाएगा। दुगुना नहीं, कई गुना हो जाएगा मामला। मगर लोग चले! क्योंकि लोग स्वात में रस नहीं ले पाते। अपना स्वाद ही नहीं जानते। अपना छंद ही अपरिचित है। भीतर की वीणा में कोई स्वर नहीं उठता मालूम होता। भीतर सब खाली-खाली, रिक्त-रिक्त मरुस्थल जैसा। चले, कहीं से रस मिले, कहीं रसधार बहे, थोड़े प्रसन्न हों। तो क्लब बनाते, समूह बनाते, नाचघर जाते, सिनेमा में बैठ जाते, रेडियो खोल लेते, अखबार पढ़ते, लेकिन कहीं अपने को भुलाओ! किसी में अपने को डुबाओ! अकेलेपन में बड़ी बेचैनी है।
ख्याल रखना, जो जहां है, जैसा है, अगर वहीं सुखी नहीं है तो फिर कहीं भी सुखी नहीं हो सकता। और जो जहां है, जैसा है, वहीं सुखी है, वह कहीं भी सुखी हो सकता है।
इसका मतलब यह भी मत समझ लेना कि ज्ञानी भीड़ से भागता है। इसलिए अष्टावक्र कहते, 'शात बुद्धिवाला पुरुष न लोगों से भरे नगर की ओर भागता है और न वन की ओर ही।'
क्योंकि वह भी फिर दूसरा उपद्रव हो गया। कुछ लोग हैं जो कहते हैं, भीड़ में नहीं जाएंगे, भीड़ में अच्छा नहीं लगता, हम तो जंगल चले! हम तो स्वात के वासी हैं। मगर यह बात भी बंधन हो गयी। अब तुम्हें दूसरे की मौजूदगी में अशांति होने लगी। पहले दूसरे की मौजूदगी में आनंद होता था, अब दुख होने लगा। मगर हर हालत में नजर दूसरे पर रही। पहले दूसरे: की तरफ भागते थे, अब दूसरे से भागने लगे, मगर नजर दूसरे पर रही। अब भी अपने पर आना नहीं हुआ| अपने पर वही आदमी आता है, जो न दूसरे की तरफ भागता है, न दूसरे से भागता है। न तो भागो स्त्री की तरफ, न स्त्री से भागो। न भागो धन की तरफ, न धन को छोड़कर भागो। न भागो पुरुषों की तरफ न पुरुषों को भागो छोड़कर। भागो ही मत। जहां हो, जैसे हो, वहीं परमात्मा पूरा का पूरा उ भाग कर कहां जा रहे! क्या तुम सोचते हो परमात्मा कहीं और थोड़ा ज्यादा है? तुम सोचते हो पूना में कम और प्रयाग में थोड़ा ज्यादा है? तो तुम पागल हो।
तुमको अगर हिंदुस्तान के सब पागल देखने हों, तो अभी तुम्हें कुंभ के मेले में मिल जाएंगे। करीब-करीब पचास परसेंट पागल वहा मौजूद हैं। तीर्थ की तरफ जा रहे हो त्र: तीर्थ का अर्थ ही इतना