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बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है? एक ही उपाय है पहचानने का, उसके पास रहने लगो, बसो उसके पास, रुको उसके पास। अगर तुम्हें किसी दिन शाति के तैरते हुए बादल तुम्हारे भीतर आ जाएं और अचानक तुम पाओ कि सब विचार खो गये हैं, वे जो अनवरत चलते थे, दिन-रात चलते थे, वह जो तुम्हारे भीतर कोलाहल मचा ही रहता था, अचानक जैसे कोई ले गया सब कोलाहल; आया एक बादल
और वर्षा हो गयी और तुम शीतल हो गये; आया एक हवा का झोंका और सब धूल उड़ गयी और तुम ताजे और नये हो गये, जैसे कुछ अनहोना घटा और तुम सकते में आ गये, कोई विचार न रहा, तुम निर्विचार हो गये, जिसके पास निर्विचार घट जाए, जानना कि वहा बुद्धत्व घटा है। और तो कोई उपाय नहीं है। जानना कि वहा जिनत्व घटा है।
हम प्रतिपल दूसरे के विचारों से प्रभावित होते हैं। ऐसा समझो कि जो श्वास मैंने ली अभी, मेरे भीतर है अभी, थोड़ी देर बाद तुम्हारी श्वास हो जाएगी। और अभी जो श्वास तुम्हारे भीतर है, थोड़ी देर बाद मेरी श्वास हो जाएगी। हम एक-दूसरे की श्वासें ले रहे न! ठीक ऐसे ही हम एक -दूसरे के विचार भी पी रहे हैं। दिखायी नहीं पड़ता कि दूसरे की श्वास तुम्हारी श्वास में गयी। तुमने कभी शायद ऐसा सोचा भी न हो, नहीं तो घबड़ाने भी लगो कि अरे, यह दुष्ट बैठा है, इसकी श्वास भीतर जा रही है मेरे, भागो यहां से, कहीं इसकी श्वास कहा का गंदा आदमी बिना नहाए-धोए बैठा है, इसकी श्वास मेरे भीतर जा रही है! मैं ब्राह्मण, यह शूद्र; मैं नहाया - धोया, पवित्र, पुण्यात्मा, यह पापी! मगर श्वास आ-जा रही है। जैसे श्वास आ-जा रही अदृश्य, उससे भी ज्यादा अदृश्य विचार आ-जा रहे।
प्रत्येक व्यक्ति एक ब्राडकास्टिंग है। पूर वक्त फेंक रहा अपने चारों तरफ तरंगें, सूक्ष्म तरंगें, और सब आसपास उन्हें लोग पकड़ रहे। तुम तभी तरंगें पकड़ना बंद करते हो, जब तुम समाधि को उपलब्ध होते हो। तब तुम किसी के भी पास बैठे रहो, तुम सुरक्षिता तुम्हारे छिद्र में कुछ प्रवेश नहीं करता। और जिस दिन तुम इस शोग्य हो जाते हो कि तुम्हारे भीतर दूसरे की तरंगें प्रवेश नहीं करतीं, उस दिन तुम्हारा शून्य दूसरों में प्रवेश करने लगता है।
शिष्य और गुरु का इतना ही अर्थ है। जिसकी तरफ से शून्य बहने लगा, वह गुरु; और जो उस शून्य को लेने को राजी हो गया झोली फैलाकर, अंजुली पसारकर, वह शिष्य। शून्य का आदान-प्रदान जिनके बीच होता है, वे ही शिष्य और गुरु।
ये जो स्वप्न तुम्हारे भीतर चलते हैं, इन्हें तुम अपने मत मान लेना। और निद्रा में अमित अव्यक्त भावों के सहस्रों स्वप्न चलते हैं
ये सहस्रों स्वप्न जो अपने नहीं हैं, ये भी सब उधार हैं। जरा देखो तो अपनी गरीबी! सपने भी अपने नहीं। जरा देखो तो दीनता! धन तो अपना है ही नहीं, पद तो अपना है ही नहीं, सपना तक अपना नहीं! वह भी दूसरे पैदा कर देते।