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दिनांक 4 फरवरी, 1977,
ओशो आश्रम, कोरेगांवपार्क, पूना ।
सूत्र:
सप्तोपि न सप्तौ च स्वम्मेउयि शयितो न च। जागरेऽपि न जागर्ति धीरस्तृप्तः पदे पदे ।। 27011 ज्ञः सचिन्तोउपि निश्चिन्तः सेन्द्रियोऽयि निरिन्द्रियः । सुबुद्विरपि निर्बुद्धि साहंकारोघ्नहंकृति । । 271।।
सुखीनच वा दुःखी न विरक्तो न संगवान् । मुमुक्षुर्न वा मुक्तो न किंचिन्न न किंचन ।। 27211 विक्षेयेऽपि न विक्षिप्तः समाधौ न समाधिमान् । जाडधेउपि न जडो अन्यः पंडित्येउपि न पंडित:।। 27311 मक्तो यथास्थितिस्वस्थः कृतकर्तव्यनिर्वृतः ।
समः सर्वत्र वैतृष्णयान्न स्मरत्यकृतं कृतम्।। 27411 न प्रीयते वद्यमानो निद्यमानो न कप्यति। नैवोद्विजति मरणे जीवने नाभिनंदति || 27511 न धावति जनाकीर्ण नारण्यमयशांतधीः । यथातथा यत्रतत्र सम एवावतिष्ठते ।! 27611
चौथे की तलाश-प्रवचन - दसवां
इस अपूर्व संवाद का अंतिम चरण करीब आने लगा। अष्टावक्र के आज के सूत्र आखिरी सूत्र होंगे। बाद में थोडे सूत्र और हैं, वे सूत्र जनक के हैं। गुरु ने सब कह दिया जो कहा जा सकता था और जो नहीं कहा जा सकता था। जिसे बताया जा सकता था और जिसे बताने का कोई उपाय नहीं था। उस तरफ भी इशारा कर दिया जिस तरफ इशारे हो सकते थे और उस तरफ भी इशारा कर दिया जिस तरफ कोई इशारा न कभी हुआ है, न हो सकता है।
आज चरमशिखर है अष्टावक्र के वचनों का, आखिरी बात। और यह अष्टावक्र की ही आखिरी बात नहीं, यह समस्त ज्ञानियों की आखिरी बात है। इसके पार बात नहीं जाती। इसके पार शब्द और नहीं उड़ पाते हैं। यह उनकी सीमा आ गयी। इसके पार भी आकाश है, इसके पार भी अनंत है-वस्तुत इसी के बाद ही असली शुरू होता है - लेकिन यहां तक शब्द भी ले आते हैं। यहां तक शब्द की सवारी