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भीतर इतना प्रेम जग जाए कि न केवल तुम उसे सम्हाल ही न पाओ, तुम लुटाने लगो, तो समझना कि बुद्धत्व की महाक्रांति घटित हुई है। बुद्धत्व का सूर्य ऊगा है।
चौथा प्रश्न :
प्रथम और अंतिम स्वतंत्रता के बीजरूप को कृपा करके हमें कहिए।
फिर बीजरूप में ही कहता हूं।
स्वतंत्रता का प्रथम और अंतिम सूत्र छोटा-सा है। इतना-सा ही है कि तुम स्वतंत्र हो, कुछ करना नहीं है। कि तुम स्वतंत्र हो, होना नहीं है। प्रयास, चेष्टा, साधना, कुछ भी नहीं। स्वतंत्रता तुम्हारा स्वभाव है। स्वतंत्रता है ही। तुम जीना शुरू करो। तुम ऐसे जीना शुरू करो जैसे स्वतंत्र हो। और तुम रोज-रोज पाओगे स्वतंत्रता बढ़ती जाती है। और एक दिन तुम पाओगे, खूब पागल थे हम भी, नाहक गुलाम होने का ढोंग कर रहे थे। स्वतंत्र हम थे। सिर्फ तुम्हारा अभ्यास है गुलामी का स्वतंत्रता तुम्हारा स्वभाव है। तुम उसकी उदघोषणा करो। स्वतंत्रता पानी नहीं है, स्वतंत्रता है ही। सिर्फ प्रगट करनी है। जैसे बीज में छिपा है वृक्ष, ऐसे ही स्वतंत्रता तुममें छिपी है।
तो इतना ही सूत्र है प्रथम और अंतिम स्वतंत्रता का कि तुम्हें स्वतंत्र होना नहीं है तुम स्वतंत्र हो। इस बात को हृदयंगम करो, इस बात को अपने में उतर जाने दो कि तुम्हारे हृदय के अंतरतम में विराजमान हो जाए।
अष्टावक्र की पूरी महागीता का स्वर इतना-सा है कि तुम सिद्ध हो, तुम्हें साधक नहीं होना
पांचवां प्रश्न :
आप हमें अनेक-अनेक बहानों से, अनेक-अनेक आयामों से जीवन-बोध दे रहे हैं, पर वह रोज-रोज और- और अबूझ, रहस्यमय, आश्चर्यजनक होता जा रहा है। क्या जीवन के विराट होने, जीवन के अनंत होने, जीवन के नितनूतन होने का अभिप्राय यही है? कृपा करके हमें कहें।
जीवन रहस्य है। तो जितना-जितना तुम जानोगे, उतना-उतना रहस्यपूर्ण हो जाएगा।
तुम इस खयाल में मत रहना कि जीवन को जान लोगे तो रहस्य समाप्त हो जाएगा। ऐसा