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चले थे कि यह भी रख लें-ट्रांजिस्टर रेडिओ भी रख लें, पोर्टबॅल टेलीविजन भी रख लें और थर्मस भी और भोजन भी और सब सामान लेकर चले थे और कैमरा और यह, अब बोझ बढ़ने लगा। पहाड़ की ऊंचाई उठने लगी, अब धीरे- धीरे छोड़ना पड़ेगा। एक-एक चीज छोड़नी पड़ेगी। अब छोड़ो यह टेलीविजन. अब नहीं ढोया जा सकता। अब छोडो यह ट्रांजिस्टर रेडियो, अब छोड़ो यह कैमरा भी ऐसे-ऐसे, ऐसे-ऐसे, शायद अंत तक थर्मस को बचाना पड़े। लेकिन आखिरी क्षण में थर्मस भी छोड़ देनी पड़ेगी। अब इसकी भी क्या जरूरत, घर आ गया! अब थर्मस भी छोड़ो।
___ जब तुम बिलकुल निपट सरल अकेले, नग्न बचे, निर्वस्त्र, कुछ भी न हाथ में रहा, शून्य बचे वहीं, वहीं है मिलन।
निर्व्याजार्जवभूतस्य।
अब जिसके मन में कोई कपट, कोई दवंदव, कोई चाल, कोई हिसाब, कोई गणित न रहानिर्व्याज, आर्जव-जो सीधी रेखा जैसा सरल हो गया। इरछा-तिरछापन न रहा।
चरितार्थस्ययोगिनः।
और जिसके जीवन में अंतस आचरण बन गया। चरितार्थस्ययोगिनः।
जैसा भीतर, वैसा बाहर; जैसा बाहर, वैसा भीतर; यह बाहर- भीतर की बात भी गयी, अब न कुछ बाहर, न कुछ भीतर, अब एक ही बचा।
मैंने सुना है, एक जैन साधु ने स्वप्न देखा। देखा स्वप्न में कि अपने हाथ में दो ऊंचे डंडे लेकर मोक्ष-महल की ऊपरी मंजिल पर चढ़ने का प्रयास कर रहा है। लेकिन हार-हार जाता है, गिर-गिर जाता है। बार-बार अपनी जगह पर लौट आता है। कुछ समझ नहीं आता कि अड़चन कहां हो रही है, उठ क्यों नहीं पाता ऊपर? तब पास खड़े एक बुजुर्ग की तरफ देखा, जो खड़े हंस रहे हैं। वे बुजुर्ग
और जोर से हंसने लगे और उन्होंने कहा कि तुम यह कर क्या रहे हो! तो उस जैन-साधु ने कहा, मेरे पास सम्यक-ज्ञान और सम्यक दर्शन के दो डंडे हैं, मैं इनके सहारे मोक्ष-महल की ऊपरी मंजिल पर पहुंचना चाहता हो लेकिन न-मालूम क्या अड़चन हो रही है, मैं फिसल-फिसल आ रहा हूं। डंडे मेरे पास हैं, चढ़ाई नहीं हो पा रही है। आप खड़े हंसते हैं! कुछ मार्गदर्शन दें।
बजर्ग ने कहा, सम्यक-ज्ञान और सम्यक-दर्शन के सहारे तम अपने लक्ष्य तक न पहंच सकोगे डंडों के सहारे कोई इतनी ऊंची चढ़ाई होती है! ये तुम्हें चढ़ने का धोखा तो दे सकते हैं, लेकिन लक्ष्य दिलाना इनकी सामर्थ्य के बाहर है। तो वह साधु बोला, फिर मैं क्या करूं? इन्हें मैंने बड़ी मेहनत से प्राप्त किया है। जन्मों -जन्मों की खोज से। और ये बेकार हैं, तुम कहते हो! मेरा सारा श्रम व्यर्थ गया?
उस बुजुर्ग ने कहा नहीं, तुम्हारा श्रम व्यर्थ नहीं गया, न व्यर्थ जाएगा, लेकिन सम्यक-ज्ञान और सम्यक-दर्शन के इन दो खड़े डंडों में सम्यक चारित्र्य की आड़ी सीढियां लगा सको तो बात हो! अभी तुमने जाना, सुना, समझा, लेकिन जीया नहीं। और बिना जीये कोई सीढ़ी थोड़े ही बनती है।