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कि तुम शूद्र हो । शूद्र के घर में शायद पैदा हुए हो और रख दिये गये ब्राह्मण के घर में तो तुम समझ रहे हो कि तुम ब्राह्मण हो । संयोग की बात है। संस्कार की बात है - क्या तुम्हें सिखा दिया दूसरों ने। दूसरों के सिखाए कहीं कोई ब्राह्मण हुआ है!
बड़ी पुरानी और बड़ी प्यारी कथा है।
विश्वामित्र अपने को ब्रह्म ऋषि घोषित करना चाहते थे। क्षत्रिय थे। और जब तक वशिष्ठ उन्हें ब्रह्म-ऋषि स्वीकार न करें तब तक कोई उनको स्वीकार करने को राजी न था । और वशिष्ठ उन्हें हमेशा राज-ऋषि कहते थे, कभी ब्रह्म - ऋषि नहीं कहते थे।
बात बिगड़ती चली गयी। फिर तो बात यहां तक बन गयी- थे तो क्षत्रिय, और इसीलिए तो वशिष्ठ उन्हें ब्रह्म-ऋषि नहीं कहते थे - एक दिन तलवार लेकर, पूर्णिमा के चांद की रात है, पहुंच गये वशिष्ठ के आश्रम कि आज फैसला ही कर लेंगे। या तो मुझे ब्रह्म - ऋषि कहे या गर्दन अलग कर दूंगा। क्षत्रिय तो क्षत्रिय, बुद्धि तो वही थी तलवार वाली । वह लेकर पहुंच गये। वहां वशिष्ठ अपने शिष्यों को लेकर-पूर्णिमा की रात है - ब्रह्मचर्चा हो रही है।
वह छिपे बैठे हैं एक झाड़ी में कि जब मौका मिले तो निकलकर इसका फैसला ही कर दें। किसी ने पूछा वशिष्ठ को कि विश्वामित्र इतनी चेष्टा कर रहे हैं और इतने साधुपुरुष, आप उनको ब्रह्म ऋषि कह क्यों नहीं देते? क्यों उन्हें दुख दे रहे हैं? वशिष्ठ ने कहा कि विश्वामित्र अपूर्व व्यक्ति है, अनूठा व्यक्ति है, अद्वितीय व्यक्ति है और इसीलिए रुका हूं, क्योंकि मुझे आशा है वह ब्रह्म ऋषि हो जाएगा। हो जाए, तभी कहूंं अभी कह दूंगा तो रुक जाएगी बात। थोड़ी अकड़ क्षत्रिय की अभी उसमें शेष रह गयी है। अभी तलवार उसके हाथ से छूटी नहीं है। तलवार छूट जाए तो जरूर कहूंगा। है योग्य। और होकर रहेगा यह भी पक्का है। लेकिन प्रतीक्षा कर रहा हूं ठीक समय की अभी कह दूंगा तो बात अटक जाएगी, फिर कभी होने का उपाय न रहेगा। मैं उसका दुश्मन नहीं हूं ।
यह बात सुनी छिपे हुए झाड़ी में विश्वामित्र ने भरोसा न आया कि वशिष्ठ और मेरे प्रेम में इतनी बात कह रहे हैं। फेंक दी तलवार वहीं दौड़ कर वशिष्ठ के पैर पर गिर पडे । वशिष्ठ ने उठाया तो कहा, उठो ब्रह्मर्षि! आख से आंसू बहने लगे। विश्वामित्र ने कहा, अब आप कहते ब्रह्मर्षि! अब किसलिए कहते हैं! मत कहें, मैं इस योग्य नहीं हूं, आपको पता नहीं है मैं क्या करने आया था। वशिष्ठ ने कहा, उसकी फिक्र छोड़ो तुम क्या करने आए थे। तुमने जो किया, कि तुम चरण में झुक गये, यह झुक जाने की कला ही तो ब्राह्मण होने की कला है। अब यह बड़ी मुश्किल बात। इसीलिए तो रोका था अब तक कि कब तुम झुको कि तुम्हें कह दूं तुम्हारी अकड़ गयी, अब क्षत्रिय न रहा। अब तुम सच में ब्राह्मण हुए
लेकिन साधारणतः हालत उल्टी । ब्राह्मण किसी के चरणों में नहीं झुकता । यह कथा उल्टी है। ब्राह्मण किसी के चरणों में झुकता नहीं, वह तो सबको चरणों में झुकाता है। वह तो अकड़ा खड़ा रहता है। ब्राह्मण की अकड़ तुमने देखी? ब्राह्मण से ज्यादा अहंकारी आदमी खोजना मुश्किल है। क्योंकि वह अपने को सबसे श्रेष्ठ माने बैठा है। जिसने अपने को श्रेष्ठ मान लिया है, उसके श्रेष्ठ होने के